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महापुराणे उत्तरपुराणम् कोऽभिप्रायो महीशस्य न विनो वयमित्यदः । श्रुत्वा पापोदयाक्रुध्वा निदानमकरोन्मुनिः ॥३३९॥ पुत्रो भूत्वाऽस्य भूपस्य मदुग्रतपसः फलात् । निगृह्येनमिदं राज्यं गृह्यासमिति दुर्मतिः ॥३४॥ एवं दुष्परिणामेन मुनिः प्राप्य १परासुताम् । जातः पद्मावतीगर्भे भूरिवैरानुबन्धतः ॥३४१॥ सापि गर्भिकक्रौर्यान्महीभृदुहृदयामिषम् । अभूदभिलपन्ददाता तज्ज्ञात्वा मन्त्रिणस्तदा ॥३४२॥ प्रयोगविहितं भतहन्मासमिति दौर्हदम् । स्वबुद्धया पूरयंस्तस्याः किं न कुर्वन्ति धीधनाः ॥३४३॥ निर्दो«दा क्रमेणासावलब्ध सुतपातकम् । दष्टोष्टं निष्ठुरालोकं कृतम्रभङ्गसङ्गमम् ॥३४४॥ रष्वा तं पितरौ तस्य नात्र विस्रभ्य पोषणे । योग्योऽयमिति संस्मृत्य विधि तस्य विसर्जने ॥३४५॥ मञ्जूषायां विनिक्षिप्य कसमय्यां सपत्रकम् । तोकं कलिन्दकन्याया: प्रवाहे मुञ्चतः स्म तौ ॥३४६॥ अस्ति ४मण्डोदरी नाम कौशाम्ब्यां शौण्डकारिणी । तया प्रवाहे मञ्जूषामध्यस्थोऽसौ व्यलोक्यत ३४७ अवीवृधद्गृहीत्वैनमिव सा स्वसुतं हिता । किं न कुर्वन्ति पुण्यानि हीनान्यपि तपस्विनाम् ॥३४८॥ अहोभिः कैश्चिदासाद्य 'लभ्मनादिसहं वयः । आक्रीडमानान्निर्हेतु समं सकलबालकान् ॥३४९।। चपेटमुष्टिदण्डादिप्रहारैबांधते सदा । तदुराचारनिविण्णाऽत्यजन्मण्डोदरी च तम् ॥३५०॥ सोऽपि शौर्यपुरं गत्वा वसुदेवमहीपतेः । प्रतिपद्य पदातित्वं तत्सेवातत्परोऽभवत् ॥३५१॥ अतोऽन्यत्प्रकृतं ब्रूमो जरासन्धमहीपतिः । निजिताशेषभूपालः कदाचित्कार्यशेषवान् ॥३५२॥ सुरम्यविषयान्तःस्थपौदनाख्यपुराधिपम् । रिपुं सिंहरथं जित्वा बलाद्यद्धे ममान्तिकम् ॥३५३॥
अभिप्राय है सो जान नहीं पड़ता।' लोगोंका कहना सुनकर पाप कर्मसे उदयसे मुनिराजको क्रोध
आ गया जिससे उनकी बुद्धि जाती रही। उसी समय उन्होंने निदान किया कि 'मैंने जो उग्र तप किया है उसके फलसे मैं पुत्र होकर इस राजाका निग्रह करूँ तथा इसका राज छीन लूँ' ।।३३८-३४०।। इस प्रकारके खोटे परिणामोंसे मुनिराजकी मृत्यु हो गई और वे तीव्र वैरके कारण राजा उग्रसेनकी पावती रानीके गर्भ में जा उत्पन्न हुए ॥३४॥ उस रानी पद्मावतीको भी गर्भके बालककी क्रूरतावश राजाके हृदयका मांस खानेकी इच्छा हुई और उससे वह दुःखी होने लगी। यह जानकर मन्त्रियोंने अपनी बुद्धिसे कोई बनावटी चीज देकर कहा कि 'यह तुम्हारे पतिके हृदयका मांस है। इस प्रकार उसका दोहला पूरा किया सो ठीक ही है क्योंकि बुद्धिमान मनुष्य क्या नहीं करते हैं ? ॥ ३४२३४३ ॥ जिसका दोहला पूरा हो गया है ऐसी रानी पद्मावतीने अनुक्रमसे वह पापी पुत्र प्राप्त " किया, जिस समय वह उत्पन्न हुआ था उस समय अपने ओठ डस रहा था, उसकी दृष्टि कर थी
और भौंह टेढी ।। ३४४॥ माता-पिताने उसे देखकर विचार किया कि इसका यहाँ पोष योग्य नहीं है यही समझ कर उन्होंने उसे छोड़नेकी विधिका विचार किया और कांसोंकी एक सन्दूक बनवा कर उसमें उस पुत्रको पत्र सहित रख दिया तथा यमुना नदीके प्रवाहमें छोड़ दिया।। ३४५३४६।। कौशाम्बी नामकी नगरीमें एक मण्डोदरी नामकी कलारन रहती थी उसने प्रवाहमें बहती हुई सन्दूकके भीतर स्थित उस बालकको देखा। देखते ही वह उसे उठा लाई और हितैषिणी अपने पुत्रके समान उसका पालन करने लगी। सो ठीक ही है क्योंकि तपस्वियोंके हीन पुण्य भी क्या नहीं करते ? ॥ ३४७-३४८॥ कितने ही दिनोंमें वह सुदृढ़ अवस्था पाकर साथ खेलनेवाले समस्त बालकोंको चाँटा, मुट्ठी तथा डण्डा आदिसे पीड़ा पहुँचाने लगा। उसके इस दुराचारसे खिन्न होकर मण्डोदरीने उसे छोड़ दिया-घरसे निकाल दिया ॥३४६-३५०॥ अब वह शौर्यपुरमें जाकर राजा वसुदेवका सेवक बन गया और सदा उनकी सेवामें तत्पर रहने लगा ।। ३५१॥
अब इसीसे सम्बन्ध रखनेवाली एक अन्य कथा कहते हैं और वह इस प्रकार है-यद्यपि राजा जरासन्धने सब राजाओंको जीत लिया था तो भी किसी समय उसका कुछ कार्य बाकी रह गया था। उसकी पूर्तिके लिए जरासन्धने सब राजाओंके पास इस आशयके पत्र भेजे कि जो राजा
१ परां मृतिम् ल । २ सुतपावकम् ग०, ५० । ३ यमुनायाः। ४ मन्दोदरी ल । ५ शौद्रसुन्दरी । ६ लम्बनादि सह ख०, ग०, घ०, म । लङ्घनादिसह ल०। ७ सुतम् ल ।
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