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महापुराणे उत्तरपुराणम् आहर्तुमुद्यतःः सर्वे दृष्ट्वा तान् दुष्टचेतसः । योद्धं हिरण्यवर्मापि सस्वबन्धुः समुथयौ ॥३॥1॥ वसुदेवकुमारोऽपि निजनामाक्षराङ्कितम् । प्रजिघाय शरं सद्यः समुद्रविजयं प्रति ॥ ३१२॥ नामाक्षराणि तस्यासौ वाचयित्वा सविस्मयः। वसुदेवकुमारोऽत्र पुण्यात्सम्भावितो मया ॥ ३३॥ इति तुष्टा निवार्य द्राक्संग्राम समुपागमत् । सहानुजैः कनीयांसमनुजं जितमन्मथम् ॥ ३१ ॥ समुद्रविजयाधीशं वसुदेवः कृताञ्जलिः । प्रणम्य प्रीणयामास शेषानपि निजाग्रजान् ॥ ३.५॥ भूखेचराः कुमारेण तदा सर्वे निजात्मजाः । परिणीताः पुरानीय समुदः समजीगमन् ॥ ३१६॥ कुमारेण समं गत्वा स्वपुरं विहितोत्सवम् । दशार्हाः स्वेप्सितं सौख्यमन्वभूवन्ननारतम् ॥ ३१॥ एवं काले प्रयात्येषां श्लाघ्य गैरभङ्गरैः । महाशुक्रात्समुत्तीर्य शङ्खाख्यः प्राक्तनो मुनिः ॥ ३१८॥ रोहिण्याः पुण्यभापद्मनामासौ समजायत । प्रतोषं बन्धुवर्गेषु वर्धयन्नवमो बलः ॥ ३१९ ॥ सप्रतापा प्रभेवाभात्सौरी धीरस्य निर्मला । 'शरदा प्राप्य संस्कारं श्रुत्या पद्मोद्भवावहा ॥ ३२० ॥ दुर्वारो दुष्टविध्वंसी विशिष्टप्रतिपालकः । तत्प्रतापः कथं सौरमपि सारं न लहुन्ते ॥ ३२१ ॥ इतः प्रकृतमन्यत्तु वृत्तकं तन्निगद्यते । गङ्गागन्धावतीनद्योः सङ्गमे सफलद्रुमे ॥ ३२२ ॥ तापसानामभूत्पल्ली नाना जठरकौशिक: । ४वशिष्टो नायकस्तत्र पञ्चाग्निव्रतमाचरन् ॥ ३२३ ॥
प्रकार प्रलयकालमें समुद्र अपनी मर्यादा छोड़कर क्षुभित हो जाता है उसी प्रकार समुद्रविजय आदि सभी राजा मर्यादा छोड़कर क्षुभित हो उठे और जबर्दस्ती रोहिणीको हरनेका उद्यम करने लगे। यह देख, हिरण्यवर्मा भी अपने भाइयोंको साथ ले उन दुष्ट हृदय वाले राजाओंसे युद्ध करनेके लिए तैयार हो गया ॥३१०-३११ ।। कुमार वसुदेवने भी अपने नामके अक्षरोंसे चिह्नित एक बाण शीघ्र ही समुद्रविजयकी ओर छोड़ा॥३१२ ॥ वाण पर लिखे हुए नामाक्षरोंको बाँचकर समुद्रविजय आश्चर्यसे चकित हो गये, वे कहने लगे-अहो पुण्योदयसे मुझे वसुदेव मिल गया। उन्होंने सन्तुष्ट होकर शीघ्र ही संग्राम बन्द कर दिया और अपने अन्य छोटे भाइयोंको साथ लेकर वे कामदेवको जीतनेवाले लघु भाई वसुदेवसे मिलनेके लिए गये ॥ ३१३-३१४ ॥ हाथ जोड़े हुए कुमार वसुदेवने महाराज समुद्रविजयको प्रणाम कर प्रसन्न किया। तदनन्तर अपने अन्य बड़े भाइयोंको भी प्रणामके द्वारा प्रसन्न बनाया ॥३१५ ॥ कुमारके द्वारा पहले विवाही हुई अपनी-अपनी पुत्रियोंको भूमिगोचरी और विद्याधर राजा बड़े हर्षसे ले आये और उन्हें कुमारके साथ मिला दिया। समुद्रविजय आदिने कुमार वसुदेवको साथ लेकर उत्सवोंसे भरे हुए अपने नगरमें प्रवेश किया और वहाँ वे सब निरन्तर इच्छानुसार सुख भोगते हुए रहने लगे ॥३१६-३१७ । इस प्रकार इन सबका समय अविनाशी तथा प्रशंसनीय भोगोंके द्वारा सुखसे व्यतीत हो रहा था। कुछ समय बाद जिनका वर्णन पहले आ चुका है ऐसे शङ्ख नामके मुनिराजका जीव महाशुक्र स्वर्गसे चय कर वसुदेवकी रोहिणी नामक स्त्रीके पद्म नामका पुण्यशाली पुत्र उत्पन्न हुआ। वह अपने भाइयोंमें आनन्दको बढ़ाता हुआ नौवाँ बलभद्र होगा ।। ३१८-३१६ ॥ उसकी निर्मल बुद्धि सूर्यकी प्रभाके समान प्रताप युक्त थी। जिस प्रकार शरद् ऋतुका संस्कार पाकर सूर्यकी प्रभा पद्म अर्थात् कमलोंके विकासको बढ़ाने लगती है उसी प्रकार उसकी बुद्धि शास्त्रोंका संस्कार पाकर पद्मा अर्थात् लक्ष्मीकी उत्पत्तिको बढ़ाने लगी थी।। ३२० ।। उसका प्रताप दुर्वार था, दुष्टोंको नष्ट करनेवाला था और विशिष्ट-पुरुषोंका पालन करनेवाला था फिर भला वह सूर्यके सारभूत तेजका उल्लङ्घन क्यों नहीं करता ॥ ३२१॥ __ अब इसीसे सम्बन्ध रखनेवाली दूसरी कथा कही जाती है जो इस प्रकार है। जहाँ गङ्गा और गन्धावती नदियाँ मिलती हैं वहाँ बहुतसे फले फूले वृक्ष थे। उन्हीं वृक्षोंके बीच में जठरकौशिक नामकी तपसियोंकी एक बस्ती थी। उस बस्तीका नायक वशिष्ठ तपसी था वह पञ्चामि तप तपा करता था। एक दिन वहाँ गुणभद्र और वीरभद्र नामके दो चारण मुनि आये। उन्होंने उसके तपको
१ शारदा म०, ग० । २ प्राकृत ल० । ३ जठरकौशिकम् ल०, म. । ४ विशिष्ठो क्षः।
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