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एकोनसप्ततितमं पर्व यस्य नामापि धर्तृणां मुक्त्यै हृदयपङ्कजे । नमिर्गमयतानम्रान् मोक्षलक्ष्मी स मंक्षु नः ॥ ५ ॥ द्वीपेऽस्मिन् भारते वर्षे विषये वत्सनामनि । कौशाम्ब्यां नगरे राजा पार्थिवाख्यो विभुविशाम् ॥ २॥ चक्षुरिक्ष्वाकुवंशस्य लक्ष्मी वक्षःस्थले दधन् । साक्षाचक्रीव दिक्चक्रमाक्रम्याभात्स विक्रमी ॥ ३ ॥ तनूनस्तस्य सुन्दयां देव्यां सिद्धार्थनामभाक् । मुनि मनोहरोद्याने परमावधिवीक्षणम् ॥ ४॥ इष्टा मुनिवराख्यानं कदाचिद्विनयानतः । सम्पृछ्य धर्मसजावं यथावत्चदुदीरितम् ॥ ५॥ समाकये समुत्पनसंवेगः स महीपतिः । मृतिमूलधनेनाधमर्णो मृत्योरिहासुभृत् ॥ ६ ॥ वहन् दुःखानि तवृद्धि सर्वो जन्मनि दुर्गतः । रत्नत्रयं समावयं तस्मै यावन्न दास्यति ॥ ७ ॥ ऋर्ण सवृद्धिकं तावस्कुतः स्वास्थ्यं कुतः सुखम् । इति निश्चित्य कर्मारीनिहन्तं विहितोद्यमः ॥८॥ सुताय श्रुतशास्त्राय प्रजापालनशालिने । सिद्धार्थाय समर्थाय दत्वा राज्यमुदातवी:२॥९॥ प्रावाजीत्पूज्यपादस्य मुनेर्मुनिवरश्रुतेः । पादमूलं समासाद्य सतां साः वृत्तिरीदृशी ॥१०॥ सिद्धार्थो व्याससम्यक्त्वो गृहीताणुव्रतादिकः । भोगान् सुखेन भुलानः प्रचण्डोऽपालयत्प्रजाः ॥ ११ ॥ काले गच्छति तस्यैवं कदाचित्स्वगुरोर्मुनेः । श्रत्वा शरीरसंन्यासं विच्छिन्नविषयस्पृहः ॥१२॥ सयो मनोहरोचाने बुद्धतत्वार्थविस्तृतिः। महाबलाभिधाख्यातास्केवलावगमेक्षणात् ॥ १३॥
अथानन्तर-भक्त लोगोंके हृदय-कमलमें धारण किया हुआ जिनका नाम भी मुक्तिके लिए पर्याप्त है-मुक्ति देनेमें समर्थ है ऐसे नमिनाथ स्वामी हम सबके लिए शीघ्र ही मोक्ष-लक्ष्मी प्रदान करें॥१॥ इसी जम्बूद्वीप सम्बन्धी भरत क्षेत्रके वत्स देशमें एक कौशाम्बी नामकी नगरी है। उसमें पार्थिव नामका राजा राज्य करता था॥२॥ वह इक्ष्वाकु वंशके नेत्रके समान था, लक्ष्मीको अपने वक्षःस्थल पर धारण करता था, अतिशय पराक्रमी था और सब दिशाओं पर आक्रमण कर साक्षात् चक्रवर्तीके समान सुशोभित होता था ॥३॥ उस राजाके सुन्दरी नामकी रानीसे सिद्धार्थ नामका पुत्र हुआ था । एक दिन वह राजा मनोहर नामके उद्यानमें गया था। वहाँ उसने परमावधिज्ञानरूपी नेत्रके धारक मुनिवर नामके मुनिके दर्शन किये और विनयसे नम्र होकर उनसे धर्मका स्वरूप पूछा । मुनिराजने धर्मका यथार्थ स्वरूप बतलाया उसे सुनकर राजाको वैराग्य उत्पन्न हो आया। वह विचार करने लगा कि संसारमें प्राणी मरण-रूपी मूलधन लेकर मृत्युका कर्जदार हो रहा है॥४-६।। प्रत्येक जन्ममें अनेक दुःखोंको भोगता और उस कर्जकी वृद्धि करता हुआ यह प्राणी दुर्गत हो रहा हैदुर्गतियोंमें पड़कर दुःख उठा रहा है अथवा दरिद्र हो रहा है। जब तक यह प्राणी रत्नत्रय रूपी धनका उपार्जन कर मृत्यु रूपी साहूकारके लिए व्याज सहित धन नहीं दे देगा तब तक उसे स्वास्थ्य कैसे प्राप्त हो सकता है ? वह सुखी कैसे रह सकता है ? ऐसा निश्चय कर वह कर्मरूपी शत्रुओंको नष्ट करनेका उद्यम करने लगा ॥७-८॥ उत्कृष्ट बुद्धिके धारक राजा पार्थिवने, अनेक शाखोंके सुनने एवं प्रजाका पालन करनेवाले सिद्धार्थ नामके अपने समर्थ पुत्रके लिए राज्य देकर पूज्यपाद मनिवर नामके मुनिराजके चरण-कमलोंके समीप जिनदीक्षा धारण कर ली सो ठीक ही है क्योंकि सत्पुरुषोंकी ऐसी ही प्रवृत्ति होती है॥६-१०॥ प्रतापी सिद्धार्थ भी सम्यग्दर्शन प्राप्त कर तथा अणुव्रत भादि व्रत धारण कर सुखपूर्वक भोग भोगता हुआ प्रजाका पालन करने लगा।॥ ११ ॥
___ इस प्रकार समय व्यतीत हो रहा था कि एक दिन उसने अपने पिता पार्थिव मुनिराजका समाधिमरण सुना। समाधिमरणका समाचार सुनते ही उसकी विषय-सम्बन्धी इच्छा दूर हो गई। उसने शीघ्र ही मनोहर नामके उद्यानमें जाकर महाबल नामक केवली भगवानसे तत्त्वार्थका विस्तारके
१-शीलने ल०। २ श्रियं सुधीः ल । ३ महाबलाभिधाल्यातकेवला-घ०, म । महाबलाभिधानाख्यात् केवला-ल।
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