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सप्ततितम पर्व
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चिरं सोऽपि तपः कृत्वा महाशुक्रऽमरोऽजनि । तत्र षोडशवाायुरनुभूयाभिवाञ्छितम् ॥ २१॥ प्रादुरासीचतश्च्युरवा वसुदेवो वसुन्धराम् । वशीकर्त्तमयं यस्माद्भाविनी बलकेशवी ॥ २१॥ इति सर्वमिदं श्रत्वा ससंवेगपरायणः । सप्रेक्षोऽन्धकवृष्ठ्याख्यः स्वीचिकीर्षुः परं पदम् ॥ २१२॥ समुद्रविजयाख्याय दत्वाभिषवपूर्वकम् । राज्यमुज्झितसङ्गः सन् शमसङ्गस्तपोऽग्रहीत् ॥ २१३॥ सुप्रतिष्ठजिनाभ्यणे राजभिर्बहुभिः समम् । स संयमान्ते संन्यस्य विन्यासं निवृतेरगात् ॥ २१४॥ समुद्रविजये पाति क्षितिं वर्णाश्रमाः सुखम् । सुधर्मकर्मसु स्वैरं प्रावर्तन्त यथोचितम् ॥ २१५॥ राज्य विभज्य दिक्पालैरिव भ्रातृभिरष्टभिः । सहान्वभूत्स भूपालः सकलं सर्वसौख्यदम् ॥ २१६ ॥ एवं सुखेन सर्वेषां काले गच्छत्ययोदयात् । चतुरङ्गबलोपेतो वसुदेवो युवाग्रणीः ॥ २१७ ॥ गन्धवारणमारुह्य सञ्चरचामरावलिः । वाद्यमानाखिलातोद्यध्वनिनिर्मिनदिक्तटः ॥ २१८॥ बन्दिमागधसूतादिसूद्यमानाङ्कमालकः । नानाभरणभाभारभासमानस्वविग्रहः ॥ २१९ ॥ निगृहीतुमिवोग्रांशुमुद्यतो निजतेजसा । अधो विधातुं 'वाप्येष भूषणाङ्गसुरद्रुमम् ॥ २२०॥ अमराणां कुमारो वा कुमारः प्रत्यहं बहिः । निर्गच्छति पुरात्स्वैरं स्वलीलादर्शनोत्सुकः ॥ २२ ॥ विसस्मरुविलोक्यैनं स्वव्यापारान् पुरस्त्रियः । निरादरा बभूवुश्च मातुलान्यादिवारणे ॥ २२२॥ निर्गमेऽथ कुमारस्य विषण्णा नागरास्तदा । गत्वा विज्ञापयामासुस्तद्वृत्तान्तं महीपतेः ॥ २२३ ॥ श्रत्वावधार्य तद्गाजा सहजस्रोहनिर्भरः । प्रकाशप्रतिषेधेन कदाचिद्विमुखो भवेत् ॥ २२४ ॥
वह नन्दी भी चिरकाल तक तपश्चरण कर महाशक स्वर्गमें देव हुआ, वहाँ सोलह सागरकी आयु प्रमाण मनोवांछित सुखका उपभोग करता रहा । तदनन्तर वहाँ से च्युत होकर पृथिवीको वश करनेके लिए वसुदेव हआ है। बलभद्र और नारायणकी उत्पत्ति इसीसे होगी॥२१०-२११॥ महाराज अन्धकवृष्टि यह सब सुनकर संसारसे भयभीत हो उठे। वे विद्याधर तो थे ही, अतः परम पद-मोक्षपद प्राप्त करनेकी इच्छासे उन्होंने अभिषेकपूर्वक समुद्रविजयके लिए राज्य दे दिया और स्वयं समस्त परिग्रह छोड़कर शान्तचित्त हो उन्हीं सुप्रतिष्ठित जिनेन्द्र के समीप बहुतसे राजाओंके साथ तप धारण कर लिया। संयम धारण कर अन्तमें उन्होंने संन्यास धारण किया और कोंको नष्ट कर मोक्ष प्राप्त कर लिया ॥२१२-२१४ ॥ इधर समुद्रविजय पृथिवीका पालन करने लगे। उनके राज्यमें समस्त वर्णों और समस्त आश्रमोंके लोग, उत्तम धर्मके कार्यों में इच्छानुसार सुखपूर्वक यथायोग्य प्रवृत्ति करते थे ॥२१५॥ राजा समुद्रविजय राज्यका यथायोग्य विभाग कर दिक्पालोंके समान अपने आठों भाइयोंके साथ सर्व प्रकारका सुख देनेवाले राज्यका उपभोग करते थे॥२१६ । इस प्रकार पुण्योदयसे उन सबका काल सुखसे बीत रहा था। इन सबमें वसुदेव सबसे अधिक युवा थे इसलिए वे अपनी लीला दिखानेकी उत्कण्ठासे प्रतिदिन स्वेच्छानुसार गन्धवारण नामक हाथीपर सवार होकर नगरके बाहर जाते थे। उस समय चतुरङ्ग सेना उनके साथ रहती थी. चमरोंके समूह उनके आस-पास दुराये जाते थे, बजते हुए समस्त बाजोंका ऐसा जोरदार शब्द होता था जिससे कि दिशाओंके किनारे फटेसे जाते थे, वन्दी, मागध तथा सूत आदि लोग उनकी विरुदावलीका वर्णन करते जाते थे, अनेक प्रकारके आभरणोंकी कान्तिके समूहसे उनका शरीर देदीप्यमान रहता था जिससे ऐसा जान पड़ता था कि मानो अपने तेजसे सूर्यका निग्रह करनेके लिए ही उद्यत हो रहे हैं, अथवा भूषणाङ्ग जातिके कल्पवृक्षका तिरस्कार करनेके लिए ही तैयारी कर रहे हों । उस समय वे देवोंके कुमारके समान जान पड़ते थे इसलिए नगरकी स्त्रियाँ इन्हें देखकर अपना अपना कार्य भूल जाती थीं और अपनी मामी आदिके रोकनेमें निरादर हो जाती थींकिसीके निषेध करने पर भी नहीं मानती थीं ॥ २१७-२२२ ।। इस तरह कुमार वसुदेवके निकलनेसे नगरनिवासी लोग दुःखी होने लगे इसलिए एक दिन उन्होंने यह समाचार महाराज समुद्रविजयके पास जाकर निवेदन किया ॥२२३ ॥ नगर-निवासियोंकी बात सुनकर भाईके स्नेहसे भरे हुए महाराज
१ पुण्योदयात् । २ वाप्येक-ल। ३-वारणः ल.।
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