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महापुराणे उत्तरपुराणम् शातङ्करे समुत्पद्य विमाने भोगमन्वभूत् । विंशत्यम्भोधिमानायुस्ततः प्रच्युत्य सा तव ॥ १९ ॥ प्रियानि सुभद्राख्या धनदेवादयः सुताः । प्रख्यातपौरुषा जाताः समुद्रविजयादयः॥ १९७॥ प्रियदर्शना ज्येष्ठा च कुन्ती माद्रीति विश्रते । अथापृच्छन्महीपालो वसदेवभवावलीम् ॥ १९८ ॥ जिनेन्द्रोऽप्यबधीदित्थं शुभं गम्भीरभापया। प्रकृतिस्तादृशी तेषां यथा भव्येष्वनुग्रहः ॥ १९९ ॥ ग्रामे पलाशकूटाख्ये विषये कुरु नामनि । दुर्गतः सोमशर्माख्यो द्विजस्तस्य सुतोऽभवत् ॥ २० ॥ नाम्ना नन्दीत्यसौ देवशर्मणः सततानुगः । मातुलस्याभिलाषेण तत्सतासु विपुण्यकः ॥ २०१॥ पुत्रिकास्तस्य सप्तासन् सोऽदादन्येभ्य एव ताः । तदलाभात्स नन्दी च महादुःखवशीकृतः ॥ २०२॥ अथान्येद्यनंटप्रेक्षां वीक्षितुं कौतुकाद्गतः। बलवगटसंघट्टमपतत्सोढुमक्षमः ॥ २०३॥ समीक्ष्य तं जनोऽन्योन्यकराग्रास्फालनान्वितम् । हसत्यापनलज्जः सन् भृगुपाते कृतोद्यमः ॥ २०४॥ अद्विमस्तकमारुह्य 'टङ्कच्छिन्ने स तस्थिवान् । पातोन्मुखो भयात्कुर्वन् प्रवर्तननिवर्तने ॥ २०५॥ शवनिनाभिकाख्याभ्यां संयताभ्यां धरातले । सुस्थिताभ्यामियं छाया पृष्टः कस्येति सादरम् ॥ २०६॥ मुगुरुद्रमपेणाख्यः सनिबोधोऽब्रवीदिदम् । भवे भावी तृतीयेऽस्माच्छायेयं युवयोः पिता ॥ २०७॥ धृत्वा तत्तौ च गत्वैनं नन्दिनं भाविनन्दनौ । कुतस्ते मृतिनिर्बन्धो बन्धो विरम निष्फलात् ॥ २०८ ॥
अमुष्मान्मर गाद्भाग्यसौभाग्यादि त्वयेप्सितम् । भविष्यति तपःसिद्धरित्यग्राहयतां तपः ॥ २०९ ॥ संन्यास धारण कर लिया और मर कर उन सबके साथ आनत स्वर्गके शातङ्कर नामक विमानमें उत्पन्न हो वहाँ के भोग भोगने लगी। वहाँ उसकी बीस सागरकी आयु थी। आयुपूर्ण होनेपर वहाँ से च्युत होकर वह तुम्हारी सुभद्रा नामकी रानी हुई है, धनदेव आदि प्रसिद्ध पौरुषके धारक समुद्रविजय आदि पुत्र हुए हैं तथा प्रियदर्शना और ज्येष्ठा नामक पुत्रियोंके जीव अतिशय प्रसिद्ध कुन्ती माद्री हुए हैं । यह सब सुननेके बाद राजा अन्धकवृष्टिने अब सुप्रतिष्ठ जिनेन्द्रसे वसुदेवकी भवावली पूछी।। १८७-१९८॥ जिनराज भी वसुदेवकी शुभ भवावली अपनी गम्भीर भाषा द्वारा इस प्रकार कहने लगे सो ठीक ही है क्योंकि उनका स्वभाव ही ऐसा है कि जिससे भव्य जीवोंका सदा अनुग्रह होता है ।। १६६॥
वे कहने लगे कि कुरुदेशके पलाशकूट नामक गाँवमें एक सोमशर्मा नामका ब्राह्मण रहता था। वह जन्मसे ही दरिद्र था। उसके नन्दी नामका एक लड़का था। नन्दीके मामाका नाम देवशर्मा था। उसके सात पुत्रियाँ थीं। नन्दी अपने मामाकी पुत्रियाँ प्राप्त करना चाहता था इसलिए सदा उसके साथ लगा रहता था परन्तु पुण्यहीन होनेके कारण देवशर्माने वे पुत्रियाँ उसके लिए न देकर किसी दूसरेके लिए दे दी। पुत्रियोंके न मिलनेसे नन्दी बहुत दुःखी हुआ.॥ २००-२०२।। तदनन्तर किसी दसरे दिन वह कौतुकवश नटोंका खेल देखनेके लिए गया। वहाँ बड़े-बड़े बलवान योद्धाओंकी भीड़ थी जिसे वह सहन नहीं कर सका किन्तु उसके विपरीत गिर पड़ा। उसे गिरा हुआ देख दूसरे लोग परस्पर ताली पीट कर उसकी हँसी करने लगे। इस घटनासे उसे बहुत ही लज्जा हुई और वह किसी पर्वतकी शिखरसे नीचे गिरनेका उद्यम करने लगा ॥२०३-२०४॥ पर्वतकी शिखर पर चढकर वह टॉकीसे कटी हुई एक शिला पर खड़ा हो गया और गिरनेका विचार करने लगा परन्तु भयके कारण गिर नहीं सका, वह बार-बार गिरनेके लिए तैयार होता और बार-बार पीछे हट जाता था ॥२०५।। उसी पर्वतके नीचे पृथिवी तल पर द्रुमषेण नामके मुनिराज विराजमान थे वे मति, श्रुत अवधि इन तीन ज्ञानोंसे सहित थे, शङ्ख और निर्नामिक नामके दो मुनि उनके पास ही बैठे हुए थे उन्होंने द्रुमषेण मुनिराजसे आदरके साथ पूछा कि यह छाया किसकी है ? उन्होंने उत्तर दिया कि जिसकी यह छाया है वह इससे तीसरे भवमें तुम दोनोंका पिता होगा ।। २०६-२०७।। गुरुकी बात सुनकर उसके दोनों होनहार पुत्र नन्दीके पास जाकर पूछने लगे कि हे भाई ! तुझे यह मरणका आग्रह क्यों हो रहा है? यदि तू इस मरणसे भाग्य तथा सौभाग्य आदि चाहता है तो यह सब तुझे तपकी सिद्धिसे प्राप्त हो जावेगा' इस प्रकार समझा कर उन्होंने उसे तप ग्रहण करा दिया ।। २०८-२०६।।
१ टङ्कछिनैः घ० । टकच्छन्ने ख० । २-दिति ख०, घ० ।
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