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महापुराणे उत्तरपुराणम् मलधारी परिभ्रष्टशेषेन्द्रियविजम्भणः । जिह्वाविषयमेवेच्छन् दण्डधारीव भूपतिः ॥ १६॥ तमस्तमःप्रजातानां रूपमीदृग्भवेदिति । वेधसेव स्फुटीकर्तुमिहस्थानां विनिर्मितः ॥ १६८ ॥ दधन्माषमषीवर्णमर्कभीत्यः तमश्चयः । नररूपधरो वातिजुगुप्स्यः पापभाक् कचित् ॥ १६९ ॥ आकण्ठपूर्णहारोऽपि नयनाभ्यामतृप्तवान् । परिवीतकाटीर्णछिद्रिताशुभकर्पटैः॥१७॥ व्रणवैगन्ध्यसंसक्तमक्षिकौटुरितस्ततः । ऋद्धयंच्छववदावेष्ट्यो मुखरैरनपायिभिः ॥१७॥ पौरबालकसहातैरनुयातैरनुक्षणम् । उपलादिप्रहारेण ताड्यमानः प्रकोपवान् ॥ १७२॥ अनुधावन्पतन्नेव दुःखैः कालमजीगमत् । कदाचिल्लब्धकालादिस्नुयातो महामुनिम् ॥ १७ ॥ समुद्रसेननामानं पर्यटन्तं तनुस्थितेः। वणिग्वैश्रवणागारे तेनाकण्ठमभोज्यत ॥ १७ ॥ पुनर्मुन्याश्रमं गत्वा कुरु त्वामिव मामपि । इत्यवादीदसौ वास्तु भव्योऽयमिति निश्चयात् ॥ १७ ॥ दिवसैः सहवासेन कैश्चिल्लक्षिततन्मनाः । अग्राहयन्मुनिस्तेन संयम शमसाधनम् ॥ १७६ ॥ बुद्धयादिक यस्तस्य जाताः संवत्सरादतः । स श्रीगोतमनाम्नामा गुरुस्थानमवाप सः॥१७७ ॥ जीवितान्ते गुरुस्तस्य मध्यवयकोर्ध्वगे । विमाने सुविशालाख्ये समुत्पन्नः सुरोचमः॥ १७८॥ स श्रीगौतमनामापि विहिताराधनाविधिः । सम्यक् संन्यस्य तत्रैव सम्प्रापदहमिन्द्रताम् ॥ १७९ ॥ तत्र दिव्यं सुखं भुक्त्वा तस्माद्विप्रचरो मुनिः । अष्टाविंशतिवाायुरतिक्रान्तौ च्युतो भवान् ॥१८॥
मुनियोंके समान शीत, उष्ण तथा वायुकी बाधाको बार-बार सहता था, वह सदा मलिन रहता था, केवल जिह्वा इन्द्रियके विषयकी ही इच्छा रखता था, अन्य सब इन्द्रियोके विषय उसके छूट गये थे। जिस प्रकार राजा सदा दण्डधारी रहता है-अन्यथा प्रवृत्ति करनेवालोंको दण्ड देता है उसी प्रकार वह भी सदा दण्डधारी रहता था-हाथमें लाठी लिये रहता था ।। ९६५-१६७ ।। 'सातवें नरकमें उत्पन्न हुए नारकियोंका रूप ऐसा होता है। यहाँ के लोगोंको यह बतलानेके लिए ही मानो विधाताने उसकी सृष्टि की थी। वह उड़द अथवा स्याही जैसा रङ्ग धारण करता था। अथवा ऐसा जान पड़ता था कि सूर्यके भयसे मानो अन्धकारका समूह मनुष्यका रूप रखकर चल रहा हो। वह अत्यन्त घृणित था, पापी था, यदि उसे कहीं कण्ठपर्यन्त पूर्ण आहार भी मिल जाता था तो नेत्रोंसे वह अतृप्त जैसा ही मालूम होता, वह जीर्ण शीर्ण तथा छेदवाले अशुभ वस्त्र अपनी कमरसे लपेटे रहता था, उसके शरीर पर बहुतसे घाव हो गये थे, उनकी बड़ी दुर्गन्ध आती थी तथा भिनभिनाती हुई अनेक मक्खियाँ उसे सदा घेरे रहती थीं, कभी हटती नहीं थीं, उन मक्खियोंसे उसे क्रोध भी बहुत पैदा होता था । नगरके बालकोंके समूह सदा उसके पीछे लगे रहते थे और पत्थर आदिके प्रहारसे उसे पीड़ा पहुँचाते थे, वह अँझला कर उन बालकोंका पीछा भी करता था परन्तु बीच में ही गिर पड़ता था। इस प्रकार बड़े कष्टसे समय बिता रहा था। किसी एक समय कालादि लब्धियोंकी अनुकूल प्राप्तिसे वह आहारके लिए नगरमें भ्रमण करनेवाले समुद्रसेन नामके मुनिराजके पीछे लग गया। वैश्रवण सेठके यहाँ मुनिराजका आहार हुआ। सेठने उस गोतम ब्राह्मणको भी कण्ठ पर्यन्त पूर्ण भोजन करा दिया। भोजन करनेके बाद भी वह मुनिराजके आश्रममें जा पहुँचा और कहने लगा कि आप मुझे भी अपने जैसा बना लीजिये । मुनिराजने उसके वचन सुनकर पहले तो यह निश्चय किया यह वास्तवमें भव्य है फिर उसे कुछ दिन तक अपने पास रखकर उसके हृदयकी परख की। तदनन्तर उन्होंने उसे शान्तिका साधन भूत संयम ग्रहण करा दिया ।। १६८-१७६ ॥ बुद्धि आदिक ऋद्धियाँ भी उसे एक वर्षके बाद ही प्राप्त हो गई। अब वह गोतम नामके साथ ही साथ गुरुके स्थानको प्राप्त हो गया-उनके समान बन गया ॥ १७७ ॥ श्रायुके अन्तमें उसके गुरु मध्यमप्रैवेयक के सुविशाल नामके उपरितन विमानमें अहमिन्द्र हुए और श्री गोतम मुनिराज भी आयुके अन्तमें विधिपूर्वक आराधनाओंकी आराधनासे अच्छी तरह समाधिमरण कर उसी मध्यम अवेयकके सुविशाल विमानमें अहमिन्द्र पदको प्राप्त हुए ।। १७८-१७६ ॥ वहाँ के दिव्य सुखका उपभोग कर
१ श्रीगोतमेतिनाम्नामा म०। श्रीगोतमनाम्नामा (8)।
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