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महापुराणे उत्तरपुराणम्
सौधर्मकल्पे चित्राङ्गदाख्यो देवोऽजनिष्ट सः । ततो निर्गत्य जम्ब्वादिद्वीपे भरतमध्यगे ॥ १३८ ॥ सुरम्यविषये पोदनेशः सुस्थितभूपतेः । सुलक्षणायां पुत्रोऽभूत्सुप्रतिष्ठावरिष्ठधीः ॥ १३९ ॥ कदाचित्प्रावृडारम्भे गिरावसितनामनि । युद्धं मर्कटयोर्वीक्ष्य स्मृतप्राग्जन्मचेष्टितः ॥ १४० ॥ सुधर्माचार्यमासाद्य दीक्षित्वाऽभवदीदृशः । सूरदराचरः सोऽहं सुदशोप्यनुजो भवे ॥ १४१ ॥ भ्रान्त्वान्ते सिन्धुतीरस्थमृगायणतपस्विनः । विशालायाश्च तोकोऽभूद्गोतमाख्यः कुदर्शनात् ॥ १४२ ॥ तपः पञ्चाग्निमध्येऽसौ विधाय ज्योतिषां गणैः । देवः सुदर्शनो नाना भूत्वा प्राग्जन्मवैरतः ॥ १४३ ॥ मायमकरोदीगिति तद्वाक्यमादरात् । श्रुत्वा सुदर्शनो मुक्तवैरः सद्धर्ममग्रहीत् ॥ १४४ ॥ अथातोऽन्धकवृष्टिश्च श्रुत्वा मुकलयन्करौ । स्वपूर्व भवसम्बन्धमपृच्छज्जिन पुङ्गवम् ॥ १४५ ॥ वीतरागोऽपि सोऽप्याह तत्पृष्टं शिष्टगीर्गुणः । निर्निमिशहिताख्यानं नाम तेषु निसर्गजम् ॥ १४६ ॥ द्वीपेऽत्रैव विनीतायां नरेन्द्रोऽनन्तवीर्यवाक् । सुरेन्द्रदास्तत्रैव वैश्यो वैश्रवणोपमः ॥ १४७ ॥ दशभिर्नित्य पूजायामष्टम्यां द्विगुणैस्ततः । चतुर्गुणैरमावस्यायां पर्वण्यष्टभिर्गुणैः ॥ १४८ ॥ दीनारैरर्हतां पूजां करोति विहितव्ययैः । सहितः पात्रदानेन सशीलः सोपवासकः ॥ १४९ ॥ धर्मशील इति ख्यातिं स समापापपापकः । गन्तु वारिपथं वांच्छन्नन्येद्युर्वणिजां वरः ॥ १५० ॥ द्वादशाब्दैः समावर्ज्य धनमागन्तुकः परम् । जिनपूजाव्ययायार्थं द्वादशाब्दनिबन्धनम् ॥ १५१ ॥ मित्रस्य रुद्रदशस्य ब्राह्मणस्य करे न्यधात् । अनेन जिनपूजादि कुर्वहं वा त्वमित्यसौ ॥ १५२ ॥
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चित्राङ्गद नामका देव हुआ। वहाँ से निकल कर वह उसी जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्रके मध्य में स्थित पोदनपुर नगरके स्वामी राजा सुस्थितकी सुलक्षणा नामकी रानीसे उत्कृष्ट बुद्धिका धारक सुप्रतिष्ठ नामका पुत्र हुआ ।। १३६ - १३६ ।। किसी एक समय वर्षा ऋतुके प्रारम्भमें उसने असित नामके पर्वत पर दो वानरोंका युद्ध देखा । जिससे उसे अपने पूर्व जन्मकी समस्त चेष्टाओंका स्मरण हो गया ।। १४० ।। उसी समय उसने सुधर्माचार्य के पास जाकर दीक्षा ले ली। वही सूरदत्तका जीव मैं यह सुप्रतिष्ठ हुआ हूँ। मेरा छोटा भाई सुदत्त संसार में भ्रमण करता हुआ अन्तमें सिन्धु नदीके किनारे रहनेवाले मृगायण नामक तपस्वीकी विशाला नामकी स्त्रीसे गोतम नामका पुत्र हुआ । मिथ्यादर्शनके प्रभावसे वह पचामियों के मध्यमें तपश्चरण कर सुदर्शन नामका ज्यौतिष्क देव हुआ - है। पूर्व भव के कारण ही इसने मुझ पर यह उपसर्ग किया है। सुदर्शन देवने उन सुप्रतिष्ठ केवलीके वचन बड़े आदरसे सुने और सब वैर छोड़कर समीचीन धर्म स्वीकृत किया ॥ १४११४४ ॥ तदनन्तर राजा अन्धकवृष्टिने यह सब सुननेके बाद हाथ जोड़कर उन्हीं सुप्रतिष्ठ जिनेन्द्रसे अपने पूर्व भवका सम्बन्ध पूछा ।। १४५ ।। शिष्ट वचन बोलना ही जिनकी वाणीका विशेष गुण है ऐसे वीतराग सुप्रतिष्ठ भगवान् कहने लगे सो ठीक ही है क्योंकि बिना किसी निमित्तके हितकी बात कहना उन जैसोंका स्वाभाविक गुण है ॥ १४६ ॥
वे कहने लगे कि इसी जम्बूद्वीपकी अयोध्या नगरीमें अनन्तवीर्य नामका राजा रहता था । उसी नगरी में कुबेर के समान सुरेन्द्रदत्त नामका सेठ रहता था। वह सेठ प्रतिदिन दश दीनारोंसे, अष्टमीको सोलह दीनारोंसे, अमावसको चालीस दीनारोंसे और चतुर्दशीको अस्सी दीनारों से अर्हन्त भगवान् की पूजा करता था। वह इस तरह खर्च करता था, पात्र दान देता था, शील पालन करता था और उपवास करता था । इन्हीं सब कारणोंमे पापरहित उस सेठने 'धर्मशील' इस तरहकी प्रसिद्धि प्राप्त की थी। किसी एक दिन उस सेठने जलमार्गसे जाकर धन कमानेकी इच्छा की। उसने बारह वर्ष तक लौट आनेका विचार किया था इसलिए बारह वर्ष तक भगवान्की पूजा करनेके लिए जितना धन आवश्यक था उतना धन उसने अपने मित्र रुद्रदत्त ब्राह्मणके हाथमें सौंप दिया और कह दिया कि इससे तुम जिनपूजा आदि कार्य करते रहना क्योंकि आप मेरे ही समान हैं ।। १४७ - १५२ ।।
१ तत्प्राह ख० ।
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