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सप्ततितम पर्व
उपसर्ग विजित्यास्य सोढ़वाऽशेषपरीपहान् । ध्यानेनाहत्य घातीनि प्रादुरासीत् स केवली ॥२४॥ देवैरन्धकवृष्टिश्च सह पूजार्थमागतः । अपृच्छदेवं देवायं देवस्ते केन हेतुना ॥ १२५॥ महोपसर्ग पूज्यस्य कृतवानिति विस्मयात् । तदुक्त्यवसितौ व्यक्त जिनेन्द्रोऽप्येवमब्रवीत् ॥ १२६ ॥ द्वीपेऽस्मिन् भारते क्षेत्रे कलिङ्गविषये पुरे । काम्च्यां वणिकसुतः सूरदतोऽन्यश्च सुदरावाक् ॥ १२७ ॥ लकाद्वीपादिषु स्वैरं समावयं निजं धनम् । पुरोऽन्यक्षिपतां गूढ प्रवेश शुल्कभीलुकौ ॥ १२८ ॥ मूले क्षुपविशेषस्यानभिज्ञानमयोऽन्यदा । कश्चिन्मद्यप्रयोगार्थ वने तद्योग्यभूरुहाम् ॥ १२९॥ मूलान्युत्खन्य सगृहन् विलोक्य बहु तद्धनम् । किमनेन मुधा मूलखननेनाल्पहेतुना ॥ १३०॥ सुप्रभूतमिदं लब्धं धनं दारिद्यविगतिम् । विदधात्यामृते गैरित्यादाय गतस्ततः ॥१३॥ तदागस्य वणिकपुत्रो तत्प्रदेशे निजं धनम् । अनिरीक्ष्य मृतौ हत्वा श्रद्धधानी परस्परम् ॥ १३२ ॥ बद्ध्वायुः क्रोधलोभाभ्यामाचं नरकमीयतुः । तत्र दुःखं चिर भुक्त्वा ततो सिन्ध्याद्रिकन्दरे ॥ १३३॥ जातौ मेषौ पुनस्तत्राप्यन्योन्यवधकारिणौ । गोकुले वृषभौ जातौ गङ्गातटनिवासिनि ॥ १३ ॥ तत्र जन्मान्तरद्वेषात् कृतयुद्धौ गतासुकौ । सम्मेदपर्वते जातौ वानरौ वा नरौ धिया ॥ १३५ । शिलासलिलहेतोस्तौ कलहं खलु चक्रतुः। मृतस्तयोः सपग्रेकः परः कण्ठगतासुकः॥१३६ ॥ सुरदेवादिगुर्वन्तचारणाभ्यां समुत्सुकः । श्रुत्वा पञ्चनमस्कारं धर्मश्रुतिपुरस्सरम् ॥ १३७ ॥
लगा । अनुक्रमसे बारह वर्ष बीत जानेपर वही सुप्रतिष्ठ मुनिराज उसी गन्धमादन पर्वत पर प्रतिमा योग धारण कर पुनः विराजमान हुए । उस समय सुदर्शन नामके देवने क्रोधवश कुछ उपसर्ग किया परन्तु वे इसके द्वारा किये हुए समस्त उपसर्गको जीतकर तथा समस्त परिषहोंको सह कर ध्यानके द्वारा घातिया कोका क्षय करते हुए केवलज्ञानी हो गये॥ ११६-१२४ ॥ उस समय सब देवोंके साथ-साथ अन्धकवृष्टि भी उनकी पूजाके लिए गया था। वहाँ उसने आश्चर्यसे पूछा कि हे देव ! इस देवने पूजनीय आपके ऊपर यह महान् उपसर्ग किस कारण किया है ? अन्धकवृष्टिके ऐसा कह चुकने पर जिनेन्द्र भगवान् सुप्रतिष्ठ केवली इस प्रकार कहने लगे
इसी जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्र सम्बन्धी कलिङ्ग देशके काजीपुर नगरमें सुरदत्त और सुदत्त नामके दो वैश्य पुत्र रहते थे ॥ १२५-१२७ ॥ उन दोनोंने लङ्का आदि द्वीपोंमें जाकर इच्छानुसार बहुत-सा धन कमाया और लौटकर जब नगरमें प्रवेश करने लगे तब उन्हें इस बातका भय लगा कि इस धन पर टैक्स देना पड़ेगा। इस भयसे उन्होंने वह धन नगरके बाहर ही किसी झाड़ीके नीचे गाड़ दिया और कुछ पहिचानके लिए चिह्न भी कर दिये। दूसरे दिन कोई एक मनुष्य मदिरा बनानेके लिए उसके योग्य वृक्षोंकी जड़ खोदता हुआ वहाँ पहुँचा। खोदते समय उसे वह भारी धन मिल गया। धन देखकर उसने विचार किया कि जिससे थोड़ा ही लाभ होता है ऐसे इन वृक्षोंकी जड़ोंके उखाड़नेसे क्या लाभ है ? मुझे अब बहुत भारी धन मिल गया है यह मेरी सब दरिद्रताको दूर भगा देगा। मैं मरण पर्यन्त इस धनसे भोगोंका सेवन करूँगा, ऐसा विचार वह सब धन लेकर चला गया ॥ १२८-१३१ ॥ दूसरे दिन जब वैश्यपुत्र उस स्थान पर आये तो अपना धन नहीं देखकर परस्पर एक दूसरे पर धन लेनेका विश्वास करते हुए लड़ने लगे और परस्पर एक दूसरेको मारते हुए मर गये। वे क्रोध और लोभके कारण नरकायुका बन्धकर पहले नरकमें जा पहुंचे। चिरकाल तक वहाँ के दुःख भोगनेके बाद वहाँ से निकले और विन्ध्याचलकी गुफामें मेढ़ा हुए। वहाँ
। परस्पर एक दूसरेका वध कर वे गङ्गा नदीके किनारे बसनेवाले गोकुलमें बैल हुए। वहाँ भी जन्मान्तरके दूषके कारण दोनों युद्ध कर मरे और सम्मेदपर्वत पर बुद्धिसे मनुष्योंकी समानता करनेवाले वानर हुए ॥ १३२-१३५॥ वहाँ पर भी पत्थरसे निकलनेवाले पानीके कारण दोनों कलह करने लगे। उनमेंसे एक तो शीघ्र ही मर गया और दूसरा कण्ठगत प्राण हो गया। उसी समय वहाँ सुरगुरु और देवगुरु नामके दो चारण ऋद्धिधारी मुनिराज आ पहुंचे। उन्होंने उसे पच नमस्कार मन्त्र सुनाया, जिसे उसने बड़ी उत्सुकतासे सुना और धर्मश्रवणके साथ-साथ मरकर सौधर्म स्वर्गमें
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