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महापुराणे उत्तरपुराणम्
लाभ्यमानः स्वयं केनचित्खगेन गजाधिपात् । अपास्य सहसानीतः खेचराद्रिं कृती पुरः ॥ २५३ ॥ पत्युः किन्नरगीतस्य द्वितीयां वा रतिं सतीम् । सुतामशनिवेगस्य दत्तां शल्मलिपूर्विकाम् ॥ २५४ ॥ जातां पवनवेगायामादिष्टां परिणीतवान् । तया सह स्मरस्यापि सुखं स्मर्तुमगोचरम् ॥ २५५ ॥ अनुभूय दिनान्यत्र विश्रान्तः कानिचित्पुनः । तथोपसर्तुकामं तं समीक्ष्याङ्गारवेगकः ॥ २५६ ॥ उद्धृत्याशनिवेगस्य दायादोयं नभस्तले । ज्ञात्वा दशान्तशाल्मल्या समुद्गीर्णासिहस्तया ॥ २५७ ॥ सोऽन्वीतस्तन्मयान्मुक्त्वा तं तस्मात्प्रपलायितः । विद्यया पर्णलळ्यासौ 'प्रियाप्रहितया तथा ॥ २५८ ॥ चम्पापुरसमीपस्थ सरोमध्ये शनैः शनैः । द्वीपे निपातितोऽपृच्छ देहिनस्तीरवर्तिनः ॥ २५९ ॥ द्वीपादमुस्मान्निर्गन्तुं किं तीर्थं वदतेति तान् । अवदस्तेऽपि किं भद्र पतितः खात्त्वमित्यमुम् ॥ २६० ॥ सम्यग्भवति विज्ञातमिति तेन सुभाषिताः । प्रहस्यानेन मार्गेण जलानिगर्म्यतामिति ॥ २६१ ॥ न्यदिशन्नप्रतसास्मात्प्रविश्य नगरं गुरुम् । दृष्ट्वा गन्धर्वविद्याया मनोहरसमाह्वयम् ॥ २६२ ॥ उपविश्य तदभ्याशे वीणावादन शिक्षकान् । तत्र गन्धर्वदशायाः स्वयंवरविधि प्रति ॥ २६३ ॥ दृष्ट्वा निगूढतज्ज्ञानो वसुदेवो विमूढवत् । अहं चैभिः सहाभ्यासं करोमीत्यात्तवल्लकिः ॥ २६४॥ 3 आदावेवाच्छिनतन्त्री तुम्बीजं वाभिनत्फलम् । वैयात्यं पश्यतास्यालं दृष्ट्वा तं तेऽहसन् भृशम् ॥ २६५॥ भर्त्ता गन्धर्वदत्तायास्त्वमेवैवं विचक्षणः । गीतवाद्यविशेषेषु सर्वानस्मान् जयेरिति ॥ २६६ ॥
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क्रीड़ा कर बड़ी प्रसन्नतासे उसपर सवार हो गये ।। २४६ - २५२ ।। उसी समय किसी विद्याधरने की बड़ी प्रशंसा की और हाथीसे उठाकर उन पुण्यात्माको अकस्मात् ही विजयार्ध पर्वत पर पहुँचा दिया ।। २५३ ।। वहाँ किन्नरगीत नामके नगरमें राजा अशनिवेग रहता था उसकी शाल्मलिदत्ता नामकी एक पुत्री थी जो कि पवनवेगा स्त्रीसे उत्पन्न हुई थी और दूसरी रतिके समान जान पड़ती थी । अशनिवेगने वह कन्या कुमार वसुदेवके लिए समर्पित कर दी । कुमारने भी उसे विवाह कर उसके साथ स्मरणके भी अगोचर कामसुखका अनुभव किया और कुछ दिन तक वहीं विश्राम किया । तदनन्तर जब कुमारने वहाँ से जानेकी इच्छा की तब अशनिवेगका दायाद (उत्तराधिकारी ) अंगारवेग उन्हें जानेके लिए उद्यत देख उठाकर आकाशमें ले गया । इधर शाल्मलिदत्ताको जब पता चला तो उससे नंगी तलवार हाथमें लेकर उसका पीछा किया। शाल्मलिदत्ताके भयसे अंगारवेग कुमारको छोड़कर भाग गया। कुमार नीचे गिरना ही चाहते थे कि उसकी प्रिया शाल्मलिदत्ताके द्वारा भेजी हुई पर्णलध्वी नामकी विद्याने उन्हें चम्पापुरके सरोवरके मध्यमें वर्तमान द्वीप पर धीरेधीरे उतार दिया । वहाँ आकर कुमारने किनारे पर रहनेवाले लोगोंसे पूछा कि इस द्वीपसे बाहर निकलनेका मार्ग क्या है आप लोग मुझे बतलाइए। तब लोगोंने कुमारसे कहा कि क्या आप आकाशसे पड़े हैं ? जिससे कि निकलनेका मार्ग नहीं जानते । कुमारने उत्तर दिया कि आप लोगोंने ठीक जाना है सचमुच ही मैं आकाशसे पड़ा हूँ । कुमारका उत्तर सुनकर सब लोग हँसने लगे और 'इस मार्गके द्वारा आप जलसे बाहिर निकल आइए ऐसा कह कर उन्होंने मार्गं दिखा दिया । कुमार उसी मार्ग से निकल कर नगरमें प्रवृष्ट हुए और मनोहर नामक गन्धर्वविद्या के गुरुके पास जा बैठे । गन्धर्वदत्ताको स्वयंवरमें जीतनेके लिए उनके पास बहुतसे शिष्य वीणा बजाना सीख रहे थे। उन्हें देख तथा अपने वीणाविषयक ज्ञानको छिपाकर कुमार मूर्खकी तरह बन गये और कहने लगे कि मैं भी इन लोगों के साथ वीणा बजानेका अभ्यास करता हूं। ऐसा कह कर उन्होंने एक वीणा ले ली । पहले तो उसकी तन्त्री तोड़ डाली और फिर तँबा फोड़ दिया । उनकी इस क्रियाको देख लोग अत्यधिक हँसने लगे और कहने लगे कि इसकी धृष्टताको तो देखो। कुमार वसुदेवसे भी उन्होंने कहा कि तुम ऐसे चतुर हो, जान पड़ता है कि गन्धर्वदत्ताके तुम्हीं पति होओगे और हम सबको गाने-बजानेकी कला में हरा दोगे ।। २५४-२६६ ॥
१ प्रिययाहितया तया ग० । प्रियं प्रियतया तया ल० । २ गान्धर्वकुशलं प्राप ल० । ३ ख०, ग०, ०, म०, संमतः पाठः । श्रादावेवाचिनतंत्रीं तुंवाजं वाभिनत्फलं ल० । ४ वियात्यं ल० । ५ त्वमेवैव ल० ।
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