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सप्ततितम पर्व
३४६ तस्मिन् गते स विप्रोऽपि स्वीधृतव्यसनादिभिः। धनं कतिपयैरेव दिनैर्व्ययमनीनयत् ॥ १५३ ॥ ततश्चौर्यादिदुष्कर्मसक्त तलवरो द्विजम् । श्येनकाख्यो भ्रमन् दृष्टा रात्रौ त्वां हन्न्यहं नहि ॥ १५४ ॥ द्विजाख्याधारिणं याहि नगराद् द्रक्ष्यसे यदि । पुनः कृतान्तवक्त्रं त्वं नेष्यसे दुष्क्रियो मया ॥ १५५ ॥ 'इत्यत्यतर्जयस्सोऽपि कालकाख्येन पापिना। सममुल्कामुखीव्याधनिवासपतिनागमत् ॥ १५६ ॥ स कदाचिदयोध्यायां गोकुलापहृतौ द्विजः। श्येनकेन हतोऽयासीन्महापापादधोगतिम् ॥ १५७ ॥ ततश्च्युत्वा महामत्स्यो हरिदृष्टिविषोरगः। शार्दूलो पक्षिणामीशो २व्यालो व्याधश्च सम्भवन् ॥ १५८ ॥ प्रविश्याधोगतीः सर्वाः कृच्छ्राचाभ्यो विनिर्गतः । सस्थावरभावेन चिरकालं परिभ्रमन् ॥ १५९ ॥ जम्बूपलक्षिते द्वीपे भरते कुरुजाङ्गले । हास्तिनाख्यं पुरं पाति घराधीशे धनञ्जये ॥१६० ॥ सुतो गोतमपुत्रस्य सम्बभूव द्विजात्मजः । कपिष्ठलस्य निःश्रीकः सोऽनुन्धर्याश्च गोतमः ॥ १६ ॥ तत्समुत्पतिमात्रेण तच्छेषमभवत्कुलम् । अलब्धानः कृशीभूतजठरः प्रकटास्थिकः ॥ १६२ ॥ सिरावनखुदुष्कायो यूकाञ्चितशिरोरुहः' । शयानश्चैव सर्वैश्व तजितो यत्र तत्र वा ॥ १६३॥ कराग्रकर्परेणोपलक्ष्यमाणोऽनपारिना । सुमित्रेणैव सर्वत्र शरीरस्थितिहेतुना ॥ १६४ ॥ वाञ्छितेन रसेनेव देहीति वचसा तदा । लोलुपो निवृत्ति प्राप्तुं भिक्षामात्रेण दुर्विधः ॥ १६५ ॥ काकवत्पर्वसु श्रान्तः पश्यन् बलि विसर्जनम् । अनाश्वानिव शीतोष्णवात वाधाः सहन् मुहुः ॥१६६॥
सेठके चले जाने पर रुद्रदत्त ब्राह्मणने वह समस्त धन परस्त्रीसेवन तथा जुआ आदि व्यसनोंके द्वारा कुछ ही दिनोंमें खर्च कर डाला ॥ १५३ ।। तदनन्तर वह चोरी आदिमें आसक्त हो गया । श्येनक नामक कोतवालने उसे चोरी करते हुए एक रातमें देख लिया। देखकर कोतवालने कहा कि चूँकि तू ब्राह्मण नामको धारण करता है अतः मैं तुझे मारता नहीं हूं, तू इस नगरसे चला जा, यदि अब फिर कभी ऐसा दुष्कर्म करता हुआ दिखेगा तो अवश्य ही मेरे द्वारा यमराजके मुखमें भेज दिया जायगा-मारा जायगा ॥१५४-१५५ ॥ यह कहकर कोतवालने उसे डाँटा । रुद्रदत्त भी, वहाँ से निकल कर उल्कामुखी पर रहनेवाले भीलोंके स्वामी पापी कालकसे जा मिला ॥ १५६ ॥ वह रुद्रदत्त किसी समय अयोध्या नगरीमें गायोंके समूहका अपहरण करनेके लिए आया था उसी समय श्येनक कोतवालके द्वारा मारा जाकर वह महापापके कारण अधोगतिमें गया ।। १५७ ॥ वहाँ से निकल कर महामच्छ हुआ फिर नरक गया, वहाँसे आकर सिंह हुआ, फिर नरक गया, वहाँसे
आकर दृष्टिविष नामका सर्प हुआ फिर नरक गया, वहाँ से आकर शार्दूल हुआ फिर नरक गया, वहाँ से आकर गरुड़ हुआ फिर नरक गया, वहाँसे आकर सर्प हुआ फिर नरक गया और वहाँसे
आकर भील हुआ। इस प्रकार समस्त नरकोंमें जाकर वहाँसे बड़े कष्टले निकला और त्रस स्थावर योनियोंमें चिरकाल तक भ्रमण करता रहा ॥ १५८-१५६ ।। अन्त में इसी जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्र सम्बन्धी कुरुजांगल देशके हस्तिनापुर नगरमें जब राजा धनञ्जय राज्य करते थे तब गोतम गोत्री कपिष्टल नामक ब्राह्मणकी अनुन्धरी नामकी स्त्रीसे वह रुद्रदत्तका जीव गोतम नामक पुत्र हुआ। उत्पन्न होते ही उसका समस्त कुल नष्ट हो गया। उसे खानेके लिए अन्न नहीं मिलता था, उसका पेट सूख गया था, हड्डियाँ निकल आई थीं, नसोंसे लिपटा हुआ उसका शरीर बहुत बुरा मालूम होता था, उसके बाल जुओंसे भरे थे, वह जहाँ कहीं सोता था वहीं लोग उसे फटकार बतलाते थे, वह अपने शरीरकी स्थितिके लिए कभी अलग नहीं होनेवाले श्रेष्ठ मित्रके समान अपने हाथके अग्रभागमें खप्पर लिये रहता था ।। १६०-१६४॥ वान्छित रसके समान यह सदा 'देओ देओ' ऐसे शब्दोंसे केवल भिक्षाके द्वारा सन्तोष प्राप्त करनेका लोलुप रहता था परन्तु इतना अभागा था कि भिक्षासे कभी उसका पेट नहीं भरता था। जिस प्रकार पर्वके दिनोंमें कौआ बलिको ढूँढ़नेके लिए इधर-उधर फिरा करता है इसी प्रकार वह भी भिक्षाके लिए इधर-उधर भटकता रहता था। वह
१ इत्यतर्जयत् ल०।२ व्यालकाधश्च ल०। ३ कापिष्ठस्य ल०।४ स्नसावनद ल० ।५ तनूरूहः खः । ६ वलिविभञ्जनम् ल०। ७ वाताः वाधाः ल. (१)।
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