________________
सप्ततितम पर्व
३५१
अजन्यन्धकवृष्ट्याख्य इति तद्भावयन् सुधीः । स्वपुत्रभवसम्बन्धं सोऽन्वर्युक्त पुनर्जिनम् ॥ १८ ॥ सर्वभाषास्वभावेन ध्वनिना निजगाद सः। जम्बूपलक्षिते द्वीपे विषये मालाह्वये ॥ १८२ ॥ नृपो मेघरथो नाना पुरे मदिलनामनि । सुभद्रायां सुतस्तस्य स्थान्तदृढसंज्ञकः॥ १८३ ॥ पहबन्धं स्वपुण्येन यौवराजस्य सोऽबिभः। तत्र नन्दयशोनाम्न्यां धनदत्तवणिक्पतेः ॥ १८५॥ धनादिदेवपालाख्यौ देवपालौ जिनादिको । अर्हन्तौ दत्तदासान्तौ जिनदरा सप्तमः ॥ १८५॥ प्रिय मित्रोऽष्टमो धर्मरुचिश्चान्स्योऽभवत्सुतः। प्रियदर्शना ज्येष्टा च जाते दुहितरौ ततः ॥ १८६ ॥ नृपः सुदर्शनोचाने मन्दिरस्थविरान्तिके । कदाचिद् वणिगीशश्च पुत्रादिपरिवारितौ ॥ १८७ ॥ सक्रिय धर्ममाकर्ण्य निविंद्य स महीपतिः । दत्त्वा दृढरथायाभिषेकपूर्व स्वकं पदम् ॥ १८८ ॥ आददे संयम पश्चाच्छ्रेष्ठी च नवभिः सुतैः । ततो नन्दयशा पुत्रिकाद्वयेनागमत्तपः ॥ १८९ ॥ सुदर्शनायिकाभ्यणे तूर्णनिर्णीतसंसृतिः । क्रमाद्वाराणसीवाचं केवलज्ञानिनोऽभवन् ॥ १९ ॥ वने प्रियाखण्डाख्ये मनोहरतमद्रुमे । गुरुदंघरथो ध्यात्वा धनदत्तश्च ते त्रयः ॥ १९१ ॥ धर्मामृतमयीं वृष्टिमुनिरन्तो निरन्तरम् । जीवितान्ते तले सिद्धशिलायाः सिद्धिमत्रजन् ॥ १९२ ॥ पुरे राजगृहे पूज्यास्त्रिजगज्जननायकैः । धनदेवादिकास्तस्मिन्नेवान्येयुः शिलातले ॥ १९३ ॥ नवापि विधिना संन्यस्यन्तो वीक्ष्य सुतायुता । निदानमकरोन्नन्दयशा मे जन्मनीह वा ॥ १९४ ॥ परत्राप्येवमेवैभिर्बन्धुत्वं भवतादिति । स्वयं च कृतसंन्यासा तैः सहानतकल्पजे ॥ १९५ ॥
वह ब्राह्मण मुनिका जीव अट्ठाईस सागरकी आयु पूर्ण होने पर वहाँसे च्युत हुआ और तू अन्धकवृष्टि नामका राजा हुआ है। इस प्रकार अपने भवोंका अनुभव करता हुआ बुद्धिमान् अन्धकवृष्टि फिर भगवान्से अपने पुत्रोंके भवोंका सम्बन्ध पूछने लगा ।। १८०-१८१॥ वे भगवान् भी सर्वभाषा रूप परिणमन करनेवाली अपनी दिव्य ध्वनिसे इस प्रकार कहने लगे
जम्बूद्वीपके मङ्गला देशमें एक भद्रिलपुर नामका नगर है। उसमें मेघरथ नामका राजा राज्य करता था। उसकी देवीका नाम सुभद्रा था। उन दोनों के दृढ़रथ नामका पुत्र हुआ। अपने पुण्योदयसे उसने यौवराज्यका पट्ट धारण किया था। उसी भद्रिलपुर नगरमें एक धनदत्त नामका सेठ रहता था, उसकी स्त्रीका नाम नन्दयशा था। उन दोनोंके धनपाल, देवपाल, जिनदेव, जिनपाल, अर्हदत्त, अर्हहास, सातवाँ जिनदत्त, आठवाँ प्रियमित्र और नौवाँ धर्मरुचि ये नौ पुत्र हुए थे। इनके सिवाय प्रियदर्शना
और ज्येष्ठा ये दो पुत्रियाँ भी हुई थीं। १८२-२८६ ॥ किसी एक समय सुदर्शन नामके वनमें मन्दिरस्थविर नामके मुनिराज पधारे। राजा मेघरथ और सेठ धनदत्त दोनों ही अपने पुत्र-पौत्रादिसे परिवत होकर उनके पास गये। राजा मेघरथ क्रिया सहित धर्मका स्वरूप सुनकर विरक्त हो गया अतः अभिषेक पूर्वक दृढ़रथ नामक पुत्रके लिए अपना पद देकर उसने संयम धारण कर लिया। तदनन्तर धनदत्त सेठने भी अपने नौ पुत्रोंके साथ संयम ग्रहण कर लिया। नन्दयशा सेठानी भी अपनी दोनों पुत्रियोंके साथ सुदर्शना नामकी आर्यिकाके पास गई और शीघ्र ही संसारके स्वरूपका निर्णय कर उसने भी तप धारण कर लिया-क्रम क्रमसे विहार करते हुए वे सब बनारस पहुंचे और वहाँ बाहर अत्यन्त सुन्दर वृक्षोंसे युक्त प्रियंगुखण्ड नामके वनमें जा विराजमान हुए। वहाँ सबके गुरु मन्दिरस्थविर, मेघरथ राजा और धनदत्त सेठ तीनों ही मुनि ध्यान कर केवलज्ञानी हो गये। तदनन्तर निरन्तर धर्मामृतकी वर्षा करते हुए वे तीनों, तीनों लोकोंके इन्द्रोंके द्वारा पूज्य होकर आयु के अन्तमें राजगृह नगरके समीप सिद्ध शिलासे सिद्ध अवस्थाको प्राप्त हुए। किसी दूसरे दिन धनदेव आदि नौ भाई, दोनों बहिनों और नन्दयशाने उसी शिलातलपर विधिपूर्वक संन्यास धारण किया । पुत्र-पुत्रियोंसे युक्त नन्दयशाने उन्हें देखकर निदान किया कि जिस प्रकार ये सब इस जन्ममें मेरे पुत्र-पुत्रियाँ हुई हैं उसी प्रकार परजन्ममें भी मेरे ही पुत्र-पुत्रियाँ हों और इन सबके साथ मेरा सम्बन्ध इस जन्मकी तरह पर-जन्ममें भी बना रहें। ऐसा निदान कर उसने स्वयं
१ अविभा दधार।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org