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महापुराणे उत्तरपुराणम् भद्वैषा कामरूपस्य साधनीत्यब्रवीत्खगः । तयेवं कानिचिद् भ्रातदिनान्येषास्तु मस्करे ॥१.८॥ प्रभावमस्या: पश्यामीत्यथितस्तेन सोऽप्यदात् । पाण्डुश्च तस्कृतादृश्यनिजरूपेण सङ्गमम् ॥ १.९॥ कुन्स्या सहाकृतोत्पन्नस्तत्र कर्णाह्वयः सुतः । ततः परैरविदितं मञ्जषाख्यं सकुण्डलम् ॥ ११॥ सरत्नकवचं लेख्यपत्रकेण सहार्भकम् । 'कुन्तीपरिजनः कालिङ्गया: प्रवाहे मुमोच तम् ॥ ११ ॥ चम्पापुरेश्वरो यान्तीमानाय्यादित्यनामकः । बालभानुमिवान्तस्थं बालकं स सविस्मयः ॥१२॥ पश्यन् स्वदेव्यै २ राधायै तोकः स्यादिति भाववित् । दत्वा सद्विलोक्यैनं राधाकर्णपरिस्पृशम् ॥१३॥ अस्तु कर्णाभिधानोऽयमिति सादरमब्रवीत् । पाण्डोः कुन्त्या च मद्रया च पाणिग्रहणपूर्वकम् ॥१४॥ प्राजापत्येन सम्बन्धो विवाहेनाभवत्पुनः । कुन्त्यामजनि धर्मिष्ठो धर्मपुत्रो उधराधिपः ॥ ११५॥ भीमसेनोऽनुपार्थश्च त्रयो वर्गत्रयोपमाः । माद्रयां च नकुलो ज्येष्ठः सहदेवस्ततोऽन्वभूत् ॥ ११६॥ धृतराष्ट्राय गान्धारी दत्ता दुर्योधनोऽजनि । तयोर्दुःशासनः पश्चादथ दुर्धर्षणस्ततः ॥ ११ ॥ दुमर्षणाद्याः सर्वेऽपि शतमेकं महौजसः । एवं सुखेन सर्वेषां कालो गच्छति लीलया ॥ १८॥ अन्येधुः सुप्रतिष्ठाख्यो मुनीन्द्रो गन्धमादने । गिरी समिहितः शूरवीराख्यो वन्दितुं निजैः ॥ ११९॥ पुत्रपौत्रादिभिः साई गत्वाभ्याभिनुत्य तम् । श्रत्वा धर्म तदुद्दिष्टं स संवेगपरायणः ॥ १२० ॥ कृस्वाभिषेचनं दत्त्वा राज्यमन्धकवृष्टये । योग्योऽयमिति संयोज्य यौवराज्यं कनीयसे ॥ १२ ॥ संयम स्वयमादाय तपास्युच्चैः समाचरन् । गतेषु द्वादशाब्देषु पर्वते गन्धमादने ॥ १२२ ॥
प्रतिमायोगमालम्ब्य सुप्रतिष्ठस्य तिष्ठतः । देवः सुदर्शनो नाम चकारोपद्रवं क्रुधा ॥ १२३ ॥ अंगूठी गिर गई है । इसके उत्तरमें पाण्डुने उसे अंगूठी दिखा दी। पश्चात् पाण्डुने उस विद्याधरसे पूछा कि इससे क्या काम होता है ? उत्तरमें विद्याधरने कहा कि हे भद्र ! यह अंगूठी इच्छानुसार रूप बनानेवाली है । यह सुन कर पाण्डुने प्रार्थना की कि हे भाई ! यदि ऐसा है तो यह अंगूठी कुछ दिन तक मेरे हाथमें रहने दो, मैं इसका प्रभाव देखूगा । पाण्डुकी इस प्रार्थना पर उस विद्याधरने वह अंगूठी उन्हें दे दी । पाण्डुने उस अंगूठीके द्वारा किये अपने अदृश्य रूपसे कुन्तीके साथ समागम किया जिससे उसके कर्ण नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। कुन्तीके परिजनोंने दूसरोंको विदित न होने पावे इस तरह छिपा कर उस बालकको एक संदूकचीमें रक्खा, उसे कुण्डल तथा रत्नोंका कवच पहिनाया
और एक परिचायक पत्र साथ रखकर यमुना नदीके प्रवाहमें छोड़ दिया ॥ १०४-१११ ॥ चम्पापुरके राजा आदित्यने बहती हुई सन्दूकचीको मँगाकर जब खोला तो उसके भीतर स्थित बालसूर्यके समान बालकको देखकर वह विस्मयमें पड़ गया। उसने सोचा कि यह पुत्र अपनी रानी राधाके लिए हो जायगा। यह विचार कर उसने वह पुत्र राधाके लिए दे दिया। राधाने जब उस पुत्रको देखा तब वह अपने कर्ण-कानका स्पर्श कर रहा था इसलिए उसने बड़े आदरसे उसका कर्ण नाम रख दिया । यह सब होनेके बाद राजा पाण्डुका कुन्ती और माद्रीके साथ पाणिग्रहणपूर्वक प्राजापत्य विवाहसे सम्बन्ध हो गया । कुन्तीके धर्मपुत्र-युधिष्ठिर नामका धर्मात्मा राजा उत्पन्न हुआ फिर क्रमसे भीमसेन और अर्जुन उत्पन्न हुए। उसके ये तीनों पुत्र धर्म अर्थ काम रूप त्रिवर्गके समान जान पड़ते थे। इसी प्रकार माद्रीके ज्येष्ठ पुत्र सहदेव और उसके बाद नकुल उत्पन्न हुआ था ।। ११२-११६ ।। धृतराष्ट्र के लिए गान्धारी दी गई थी अतः उन दोनोंके सर्व प्रथम दुर्योधन उत्पन्न हुआ। उसके पश्चात् दुःशासन, दुर्धर्षण तथा दुर्मर्षण आदि उत्पन्न हुए। ये सब महाप्रतापी सौ भाई थे। इस तरह सबका काल लीला पूर्वक सुखसे व्यतीत हो रहा था ।। ११७-११८ ।। किसी दूसरे दिन गन्धमादन नामक पर्वत पर श्री सुप्रतिष्ठ नामक मुनिराज आकर विराजमान हुए। राजा शूरवीर अपने पुत्र पौत्र आदि के साथ उनकी वन्दनाके लिए गया। वहाँ जाकर उसने उनकी पूजा की, स्तुति की और उनके कहा हुआ धर्मका उपदेश सुना । उपदेश सुननेसे उसका चित्त संसारसे भयभीत हो गया अतः उसने अभिषेक कर अन्धकवृष्टिके लिए राज्य दे दिया और 'यह योग्य है। ऐसा समझकर छोटे पुत्र नरवृष्टिके लिए युवराज पद दे दिया। तदनन्तर वह स्वयं संयम धारण कर उत्कृष्ट तपश्चरण करने
१ कुन्त्याः परिजनः ल । २ स्वसैन्यै ल० । ३ युधिष्ठिरः ग०, प.।
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