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महापुराणे उत्तरपुराणम् वस्वालयपुराधीशो वज्रचापमहीपतेः। तत्र वासौ सुभामाश्च वनमालानुरूपिणी ॥ ७६ ॥ विद्युन्मालेति भूत्वा तुक विद्यदुद्योतहासिनी। आपूर्णयौवनस्यासीरिंसहकेतोः रतिप्रदा ॥ ७७ ॥ जातु तौ दम्पती इष्टा देवे विहरणे वने । चित्राङ्गन्दे समुद्धत्य हनिष्यामीति गच्छति ॥ ७८ ॥ रघुः पुरातनो भूपः सुमुखस्य सखा प्रियः । अणुव्रतफलेनाभूत्कल्पे सौधर्मनामनि ॥ ७९ ॥ वर्यः सूर्यप्रभो नाम वीक्ष्य चित्राङ्गदं तदा । शृणु मद्वचनं भद्र फलं किं तेऽनयोः मृतौ ॥८॥ पापानुबन्धि कर्मेदमयुक्त युक्तिकारिणाम् । संसारदुमदुःखाभिधानं दुःखफलप्रदम् ॥ ८१ ॥ ततो मिथुनमेतत्वं विसृज्येत्यभ्यधान्मुहुः । श्रुत्वा तज्जातकारुण्यस्तदमुञ्चदसौ सुरः ॥ ८२॥ तौ सम्बोध्य समाश्वास्य तयोश्चम्पापुरे वने । सुखाप्तिं भाविनी बुद्ध्वा सूर्यतेजो ब्यसर्जयत् ॥ ८३ ॥ तत्पुराधीश्वरे चन्द्रकीर्तिनाममहीभुजि। विपुत्रे मरणं प्राप्त राज्यसन्ततिसंस्थितेः ॥ ८४ ॥ सपुण्यं योग्यमन्वेष्टुं वारणं शुभलक्षणम् । गन्धादिभिः समभ्ययामुश्चत्सन्मन्त्रिमण्डलम् ॥ ८५॥ सोऽपि दिव्यो गजो गत्वा वनं पुण्यविपाकतः । तावुद्धत्य निजस्कन्धमारोप्य पुरमागमत् ॥ ८६ ॥ सिंहकेतोविधायाभिषेक मन्त्र्यादयस्तदा । राज्यासनं समारोप्य बद्धवा पट्ट 'ससम्मदाः॥ ८७ ॥ त्वं कस्यात्रागतः कस्मादित्याहुः सोऽब्रवीदिदम् । प्रभजनः पिता माता मृकण्डू मण्डिता गुणैः ॥८८। हरिवंशामलव्योमसोमोऽहमिह केनचित् । सुरेणानीय मुक्तः सन् सह पल्या वने स्थितः ॥ ८९॥ इति तद्वचनं श्रुत्वा मृकण्ड्वास्तनयो यतः। मार्कण्डेयस्तु नाम्नैष इति ते तमुदाहरन् ॥ १० ॥ एष देवोपनीतं तदाज्यं सुचिरमन्वभूत् । सन्ताने तस्य गिर्यन्तो हरिहिमगिरिः परः ॥ ९१ ॥
नामक देशमें भोगपुर नगरके स्वामी हरिवंशीय राजा प्रभञ्जनकी मृकण्डु नामकी रानीसे सिंहवे नामका पुत्र हुआ और वनमालाका जीव उसी हरिवर्ष देशमें वस्वालय नगरके स्वामी राजा वज्रच की सुभा नामकी रानीसे बिजलीकी कान्तिको तिरस्कृत करनेवाली विद्यन्माला नामकी पुत्री हुई सिंहकेतुके पूर्ण यौवन होनेपर उसकी स्त्री हुई ।। ७४-७७ ॥ किसी दिन वन-विहार करते सः चित्राङ्गद देवने उन दोनों दम्पतियोंको देखा और 'मैं इन्हें मारूँगा' ऐसे विचारसे वह उन्हें उठा जाने लगा ॥७८ । पहले जन्ममें सेठ सुमुखका प्रियमित्र राजा रघु अणुव्रतोंके फलसे सौधर्म स्वर सूर्यप्रभ नामका श्रेष्ठ देव हुआ था। वह उस समय चित्राङ्गदको देखकर कहने लगा कि 'हे.भ. मेरे वचन सुन, इन दोनोंके मर जानेसे तुझे क्या फल मिलेगा? यह काम पापका बन्ध करनेवा है, युक्तिपूर्वक काम करनेवालोके अयोग्य है, संसार रूप वृक्षके दुःखरूपी दुष्ट फलका देनेवाला। इसलिए तू यह जोड़ा छोड़ दे' इस प्रकार उसने बार बार कहा। उसे सुनकर चित्राङ्गदको भी द
आ गई और उसने उन दोनोंको छोड़ दिया। तदनन्तर सूर्यप्रभ देवने उन दोनों दम्पतियोंको संब कर आश्वासन दिया और आगे होनेवाले सुखकी प्राप्तिका विचार कर उन्हें चम्पापुरके वनमें छं दिया ।। ७६-८३ ॥ देव योगसे उसी समय चम्पापुरका राजा चन्द्रकीर्ति विना पुत्रके मर गया इसलिए राज्यकी परम्परा ठीक ठीक चलानेके लिए सुयोग्य मन्त्रियोंने किसी योग्य पुण्यात्मा पुरुष ढूँढ़नेके अर्थ किसी शुभ लक्षणवाले हाथीको गन्ध आदिसे पूजा कर छोड़ा था ॥८४-८५ ॥ दिव्य हाथी भी वनमें गया और पुण्योदयसे उन दोनों--सिंहकेतु और विद्युन्मालाको अपने व पर बैठा कर नगरमें वापिस आ गया ॥८६॥ प्रसन्नतासे भरे हुए मन्त्री आदिने सिंहकेतु अभिषेक किया. राज्यासन पर बैठाया और पट्ट बाँधा ॥७॥ तदनन्तर उन लोगोंने पछा आप किसके पुत्र हैं और यहाँ कहाँ से आये हैं ? उत्तरमें सिंहकेतुने कहा कि 'मेरे पिताका न प्रभञ्जन है और माताका नाम गुणोंसे मण्डित मृकण्डू है। मैं हरिवंश रूपी निर्मल आकाश चन्द्रमा हूं, कोई एक देव मुझे पत्नी सहित लाकर यहाँ वनमें छोड़ गया है, मैं अब तक वनमें स्थित था' ॥८८-८६॥ सिंहकेतुके वचन सुनकर लोग चूंकि यह मृकण्डका पुत्र है इसलिए उस माकण्डेय नाम रखकर उसी नामसे उसे पुकारने लगे ॥६०॥ इस प्रकार वह माकण्डेय, दैवयो.
१ अथ शीलपुरोधीशो वज्रघोष-म०, ल०। २ अयूर्ण ख०। ३ सहर्षाः ।
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