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सप्ततितम पर्व
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सार्द्धषोडशमासान्तनिःश्वासोऽभूनिराकुलम् । त्रयस्त्रिंशत्सहस्राब्दव्यतीतौ भोगसम्पदम् ॥ ६॥ भुझानो निःप्रवीचारं लोकनालीगतावधिः । बलदीप्तिविकारादिगुगैस्तत्क्षेत्रमात्रकः ॥ ६१ ॥ एवं देवगतौ दिव्यसुर्ख सुखमहाम्बुधेः । सम्प्राप जातसन्तृप्तिः स्थितश्विरसुखायुपा ॥ ६२ ।। यतः परं तदुद्भुतेः क्रियते वंशवर्णनम् । द्वीपे जम्बूमति क्षेत्रे भरते वत्सदेशजे ॥ ६३ ॥ कौशाम्ब्याख्ये सुविख्यातो नगरे मघवा नृपः । तद्देवी वीतशोकाऽभूत्सुतः ख्यातो रघुस्तयोः ॥ ६ ॥ सुमुखो नाम तन्नैव जातः श्रेष्ठी महद्धिकः । इतः कलिङ्गविषये पुराहन्तपुरावयात् ॥ ६५ ॥ सार्थेन सममागच्छद्वीरदचो वणिक्सुतः । नाम्ना व्याधभयादेत्य भार्यया वनमालया ॥ ६६ ॥ कौशाम्बीनगरं तत्र सुमुखाख्यं समाश्रयत् । वनमाला समालोक्य स श्रेष्ठी विहरन् बने ॥ ६७ ॥ 'विकायसायकैस्तीक्ष्णैः कदाचिच्छरधीकृतः । मायावी वीररुत्तं तं पापी वाणिज्यहेतुना ॥ ६८ ॥ प्राहिणोद् द्वादशाब्दानां दत्त्वा पुष्कलजीविकाम् । स्वीचकार सहाकीा वनमालां विलोमिताम् ॥ ६१ ॥ अतिवाह्यागतो वीरदत्तो द्वादश वत्सरान् । तद्विक्रियां समाकर्ण्य स्मरन् संसारदुःस्थितिम् ॥ ७० ॥ 'शोकाकुलः सुनिविण्णः क्षीणपुण्यो निराश्रयः । वणिम् समग्रहीहीक्षां प्रोष्टिलाख्यमुनि श्रितः ॥ ७१ ॥ जीवितान्ते स संन्यस्य कल्पे सौधर्मनामनि । जातचित्राङ्गदो देवः प्रवीचारसुखाकरः ॥ ७२ ॥ स श्रेष्ठी वनमाला च धर्भसिंहतपोभृते । दत्वा प्रासुकमाहारं निन्दित्वा निजदुष्कृतम् ॥ ७३ ॥
अन्येचुरशनेः पातासंप्राप्य मरणं समम् । भरते हरिवर्षाख्ये देशे भोगपुरेशिनः ॥ ७४ ॥ - प्रभञ्जनाख्यनृपतेर्मुकण्ड्वाख्या मनोरमा । हरिवंशेऽजनि श्रेष्टी सिंहकेतुस्तयोः सुतः ॥ ७५ ॥ -- ----
आयु थी, एक हाथ ऊँचा शरीर था, वह साढ़े सोलह माहके अन्त में एक बार श्वास ग्रहण करता था, बिना किसी आकुलताके जब तेतीस हजार वर्ष बीत जाते थे तब एक बार आहार ग्रहण करता था, उसका सुख प्रवीचार-मैथुनसे रहित था, लोक-नाड़ीके अन्त तक उसके अवधिज्ञानका विषय था, वहीं तक उसके बल, कान्ति तथा विक्रिया आदि गुण भी थे॥ ५५-६१ ।। इस प्रकार वह देवगतिमें दिव्य सुखका अनुभव करता था, सुख रूपी महासागरसे सदा सन्तुष्ट रहता था और सुखदायी लम्बी आयु तक वहीं विद्यमान रहा था ॥ २ ॥
अब इसके आगे वह जिस वंशमें उत्पन्न होगा उस वंशका वर्णन किया जाता है । जम्बूद्वीपके भरत क्षेत्रमें एक वत्स नामका देश है। उसकी कौशाम्बी नगरीमें अतिशय प्रसिद्ध राजा मघवा राज्य करता था। उसकी महादेवीका नाम वीतशोका था। कालक्रमले उन दोनोंके रघु नामका पुत्र हुआ ॥६३-६४ ॥ उसी नगरमें एक सुमुख नामका बहुत धनी सेठ रहता था। किसी एक समय कलिङ्ग देशके दन्तपुर नामक नगरमें वीरदत्त नामका वैश्य पुत्र, व्याधोंके डरके कारण अपने साथियों तथा वनमाला नामकी स्त्रीके साथ कौशाम्बी नगरीमें आया और वहाँ सुमुख सेठके आश्रयसे रहने लगा। किसी दिन सुमुख सेठ वनमें घूम रहा था कि उसकी दृष्टि वनमाला पर पड़ी। उसे देखते ही कामदेवने उसे अपने वाणोंका मानो तरकश बना लिया-वह कामदेवके वाणोंसे घायल हो गया। तदनन्तर मायाचारी पापी सेठने वीरदत्तको तो बहुत भारी आजीविका देकर बारह वर्षके लिए व्यापारके हेतु बाहर भेज दिया और स्वयं लुभाई हुई वनमालाको अपकीर्तिके साथ स्वीकृत कर लिया-अपनी स्त्री बना लिया ।। ६५-६६ ॥ बारह वर्ष विता कर जब वीरदत्त वापिस आया तब
लाके विकारका सुन संसारको दुःखमय स्थितिका विचार करने लगा। अन्तम शोकसे आकुल, पुण्यहीन, आश्रयरहित, वीरदत्तने विरक्त होकर प्रोष्ठिल मुनिके पास जिन-दीक्षा धारण कर ली ॥७०-७१ ॥ आयुके अन्तमें संन्यास मरण कर वह प्रथम सौधर्म स्वर्गमें प्रवीचारकी खान स्वरूप चित्राङ्गद नामका देव हुश्रा ।। ७२ ।। इधर सुमुख सेठ और वनमालाने भी किसी दिन धर्मसिंह नामक मुनिराजके लिए प्रासुक आहार देकर अपने पापकी निन्दा की ।। ७३ ॥ दूसरे ही दिन वनके गिरनेसे उन दोनोंकी साथ ही साथ मृत्यु हो गई। उनमेंसे सुमुखका जीव तो भरत क्षेत्रके हरिवर्ष
१ कामवाणैः। २ इषुधीकृतः। ३ शोकाकुलं ल०। ४ भारते ल०।
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