________________
महापुराणे उत्तरपुराणम्
पुण्योदयोदितान् भोगान् सर्वान् भूयोऽत्र भुक्तवान् । मासप्रमाणजीवी त्वं हितमय स्मराश्विति ॥ ४५ ॥ श्रुत्वा तद्वचनं राजा वन्दित्वा तौ मुनीश्वरौ । युवां जन्मान्तरस्नेहान्निसङ्गत्वं गतावपि ॥ ४६ ॥ उपकारं महान्तं मे कृतवन्तौ हितैषिणौ । इत्याख्यत्स ततः प्रीतौ तौ निजस्थानमीयतुः ॥ ४७ ॥ तदैव स महीशोऽपि दत्त्वा राज्यं यथाविधि । प्रीतिङ्करकुमाराय कृत्वाष्टाह्निकपूजनम् ॥ ४८ ॥ बन्धून् विसर्ग्य प्रायोपगमसंन्यासमुत्तमम् । विधाय पोडशे कल्पे द्वाविंशत्यब्धिजीवितः ॥ ४९ ॥ 'सातंकरे विमानेऽभूदच्युतेन्द्रो महर्द्धिकः । दिव्यभोगांश्विरं भुक्त्वा ततः प्रच्युत्य पुण्यभाक् ॥ ५० ॥ द्वीपेsस्मिन् भारते क्षेत्रे विषये कुरुजाङ्गले । हस्तिनाख्यपुर | धीशः श्रीचन्द्रस्य महीपते ॥ ५१ ॥ श्रीमत्यां सुप्रतिष्ठाख्यः सुप्रतिष्ठः सुतोऽभवत् । आपूर्णयौवनस्यास्य सुनन्दासीत् सुखप्रदा ॥ ५२ ॥ सुतं योग्यतमं मत्वा श्रीचन्द्रधरणीश्वरः । दत्तराज्योऽग्रही दीक्षां सुमन्दरयतिं श्रितः ॥ ५३ ॥ सुप्रतिष्टोऽपि तद्राज्ये निःकोपे सुप्रतिष्टितः । यशोधरमुनेर्दा नादवापाश्चर्यपञ्चकम् ॥ ५४ ॥ अन्तःपुरान्वितोऽन्येद्युः शशाङ्ककरनिर्मले । रम्ये हर्म्यतले स्थित्वा कुर्वन् दिगवलोकनम् ॥ ५५ ॥ उल्कापातनमालोक्य भङ्गुरं भावयन् जगत् । सुदृष्टेर्ज्येष्ठपुत्रस्य कृत्वा राज्याभिषेचनम् ॥ ५६ ॥ सुमन्दरजिनाभ्याशे लब्धबोधिरदीक्षत । क्रमेणैकादशाङ्गानां पारगो भावनापरः ॥ ५७ ॥ सम्यक्त्वादिषु बध्वासौ तीर्थकृत्कर्म निर्मलम् । स्वायुरन्ते समाधाय मासं संन्यासमास्थितः ॥ ५८ ॥ अनुत्तरे जयन्ताख्ये सम्प्रापदहमिन्द्रताम् । त्रयस्त्रिंशत्समुद्रोपमायुर्हस्ततनुच्छ्रितः ॥ ५९ ॥
३४२
प्रभ भगवान् के समीप संयम धारण कर लिया और तुम्हें देखने के लिए तुम्हारे जन्मान्तर के नेह हम दोनों यहाँ आये हैं ।। ४४ ।। हे भाई ! अब तव तू पुण्यकर्मके उदयसे प्राप्त हुए समस्त भोगोंका उपभोग कर चुका है । अब तेरी आयु केवल एक माहकी शेष रह गई है इसलिए शीघ्र ही आत्मकल्याणका विचार कर ।। ४५ ।। राजा अपराजितने यह बात सुनकर दोनों मुनिराजोंकी वन्दना की और कहा कि आप यद्यपि निर्मन्थ अवस्थाको प्राप्त हुए हैं तो भी जन्मान्तरके स्नेह से आपने मेरा बड़ा उपकार किया है । यथार्थ में आप ही मेरे दितेच्छु हैं । तदनन्तर उधर उक्त दोनों मुनिराज प्रसन्न होते हुए अपने स्थान पर गये इधर राजा अपराजितने अपना राज्य विधिपूर्वक प्रीतिङ्कर कुमारके लिए दिया, आष्टाहिक पूजा की, भाइयोंको विदा किया और स्वयं प्रायोपगमन नामका उत्कृष्ट संन्यास धारण कर लिया। संन्यासके प्रभावसे वह सोलहवें स्वर्गके सातङ्कर नामक विमान में वाईस सागरकी आयुवाला बड़ी-बड़ी ऋद्धियोंका धारक अच्युतेन्द्र हुआ। वह पुण्यात्मा वहाँ के दिव्य भोगोंका चिरकाल तक उपभोग कर वहाँ से च्युत हुआ ।। ४६-५० । और इसी जम्बूद्वीपके भरत क्षेत्र सम्बन्धी कुरुजाङ्गल देशमें हस्तिनापुर के राजा श्रीचन्द्रकी श्रीमती नामकी रानीसे सुप्रतिष्ट नामका यशस्वी पुत्र हुआ। जब यह पूर्ण युवा हुआ तब सुनन्दा नामकी इसकी सुख देनेवाली स्त्री हुई ।। ५१-५२ ।। श्रीचन्द्र राजाने पुत्रको अत्यन्त योग्य समझ कर उसके लिए राज्य दे दिया और स्वयं सुमन्दर नामक मुनिराजके पास जाकर दीक्षा धारण कर ली ।। ५३ ।। सुप्रतिष्ठ भी निष्कण्टक राज्य में अच्छी तरह प्रतिष्ठाको प्राप्त हुआ। एक दिन उसने यशोधर मुनिके लिए आहार दान दिया था जिससे उसे पञ्चाञ्चर्य की प्राप्ति हुई थी ॥ ५४ ॥ किसी दूसरे दिन वह राजा चन्द्रमा की किरणों के समान निर्मल सुन्दर राजमहलके ऊपर अन्तःपुरके साथ बैठा हुआ दिशाओंको देख रहा था कि अकस्मात् उसकी दृष्टि उल्कापात पर पड़ी। उसे देखते ही वह संसारको नश्वर ! समझने लगा । तदनन्तर उसने सुदृष्टि नामक ज्येष्ठ पुत्रका राज्याभिषेक किया और आत्मज्ञान प्राप्त कर सुमन्दर नामक जिनेन्द्र के समीप दीक्षा धारण कर ली । अनुक्रमसे उसने ग्यारह अङ्गोंका अभ्यास किया और दर्शनविशुद्धि आदि सोलह कारण भावनाओंका चिन्तवन कर तीर्थङ्कर नामक निर्मल नामकर्मका बन्ध किया । जब आयुका अन्त आया तब समाधि धारण कर एक महीनेका संन्यास लिया जिसके प्रभाव से जयन्त नामक अनुत्तर विमानमें अहमिन्द्र पदको प्राप्त किया। वहाँ उसकी तैंतीस सागर की
१ पुष्पोत्तरे ल० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org