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महापुराणे उत्तरपुराणम्
तुजेऽपराजिताख्याय दत्वा सप्ताङ्गसम्पदम् । तपोऽयं समुपादत्त पञ्चभिर्भूभुजां शतैः ॥ १५॥ कुमारोऽपि गृहीताणुवतादिः शुद्धदर्शनः । प्राविशल्लक्षितो लक्ष्म्या साक्षादिव पुरं हरिः ॥ ११ ॥ 'तन्त्रावापगतां चिन्ता उनिधाय निजमन्त्रिषु । सका शास्त्रोक्तमार्गेण तदासौ धर्मकामयोः ॥१७॥ कदाचिन्निजपित्रामा जिनं विमलवाहनम् । मुक्त्या वशीकृतं श्रुत्वा गन्धमादनपर्वते ॥ १८ ॥ अनिरीक्ष्य न भोक्ष्यऽहं जिनं विमलवाहनम् । इति प्रतिज्ञयाष्टोपवास्यासीदपराजितः ॥ १९॥ तदा शक्राज्ञया यक्षपतिविमलवाहनम् । तस्य संदर्शयामास साक्षात्कृत्वा महाशुभम् ॥ २० ॥ जैनगेहे समभ्यय॑ तं सोऽपि कृतवन्दनः । भस्म स्नेहशोकाचेतसां का विचारणा ॥२१॥ वसन्तसमयेऽन्येचुर्नन्दीश्वरदिनेष्वसौ। जिनचैत्यानि सम्पूज्य तसंस्तवनपूर्वकम् ॥ २२ ॥ तत्र स्थितः स्वयं धर्मदेशनां विदधत्सुधीः। खाद् वियच्चारणौ साधू प्रापतुस्तस्थतुः पदः ॥ २३ ॥ प्रणिपत्य तयोर्देवतास्तवावसितौ नृपः । सोपचारं समभ्येत्य श्रुत्वा धर्ममभाषत ॥ २४ ॥ भगवन्तावह पूज्यौ क्वचिप्रारहष्टवानिति । ज्येष्ठो मुनिरुवाचैवं सत्यमावां स्वयेक्षितौ ॥ २५ ॥ स्वदर्शनप्रदेशं च वक्ष्यामि शृणु भूपते । पुष्करा पराद्रीन्द्रापरभागे महासरित् ॥ २६ ॥ तस्याश्चास्त्युत्तरे भागे गन्धिलो विषयो महान् । तत्वगायत्तरश्रेण्यां सूर्यप्रभपुराधिपः ॥ २७ ॥ राजा सूर्यप्रभस्तस्य धारिणी प्राणवल्लभा । तयोश्चिन्तागतिज्येष्ठस्तनुजोऽनुमनोगदिः ॥ २८ ॥ ततश्चपलगत्यात्यस्त्रिभिस्तैस्तौ मुर्द गतौ । चिरं धर्मार्थकामैर्वा के न तुष्यन्ति सत्सुतैः ॥ २९ ॥
करते ही अकस्मात् उसकी भोगोंकी इच्छा शान्त हो गई जिससे उसने अपराजित नामक पुत्रके लिए सप्त प्रकारकी विभूति प्रदान कर पाँच सौ राजाओके साथ ज्यष्ठ तप धारण कर लिया ॥२१-१५|| कुमार अपराजितने भी शुद्ध सम्यग्दृष्टि होकर अणुव्रत आदि श्रावकके व्रत ग्रहण किये और फिर जिस तरह इन्द्र अमरावतीमें प्रवेश करता है उसी तरह लक्ष्मीसे युक्त हो अपनी राजधानीमें प्रवेश किया ॥ १६ ।। उसने स्वराष्ट्र तथा परराष्ट्र सम्बन्धी चिन्ता तो अपने मन्त्रियोंपर छोड़ दी और स्वयं शास्त्रोक्त मागेसे धर्म तथा काममें लीन हो गया ॥१७॥
किसी एक समय उसने सुना कि हमारे पिताके साथ श्री विमलवाहन भगवान् गन्धमादन पर्वतपर मोक्षको प्राप्त हो चुके हैं । यह सुनते ही उसने प्रतिज्ञा की कि 'मैं श्री विमलवाहन भगवान्के दर्शन किये बिना भोजन नहीं करूंगा। इस प्रतिज्ञासे उसे आठ दिनका उपवास हो गया ॥१८-१।। तदनन्तर इन्द्रकी आज्ञासे यक्षपतिने उस राजाको महान् शुभ रूप श्री विमलवाहन भगवान्का साक्षात्कार कराकर दर्शन कराया। राजा अपराजितने जिन-मन्दिरमें उन विमलवाहन भगवान्की पूजा वन्दना करनेके बाद भोजन किया सो ठीक ही है क्योंकि जिनका चित्त स्नेह तथा शोकसे पीड़ित हो रहा है उन्हें तत्वका विचार कैसे हो सकता है ? ॥२०-२१ ।। किसी एक दिन वसन्त ऋतुकी आष्टाह्निकाके समय बुद्धिमान् राजा अपराजित जिन-प्रतिमाओंकी पूजाकर उनकी स्तुति कर वहीं पर बैठा हुआ था और धर्मोपदेश कर रहा था कि उसी समय आकाशसे दो चारणऋद्धि धारी मुनिराज आकर वहीं पर विराजमान हो गये। जिनेन्द्र भगवान्की स्तुतिके समाप्त होने पर राजाने बड़ी विनयके साथ उनके सन्मुख जाकर उनके चरणोंमें नमस्कार किया, धर्मोपदेश सुना और तदनन्तर कहा कि हे पूज्य ! हे भगवन् ! मैंने पहले कभी आपको देखा है । उन दोनों मुनियोंमें जो ज्येष्ठ मुनि थे वे कहने लगे कि हाँ राजन् ! ठीक कहते हो, हम दोनोंको आपने देखा है ॥२२-२५ ।। परन्तु कहाँ देखा है ? वह स्थान मैं कहता हूं सुनो। पुष्कराध द्वीपके पश्चिम सुमेरु की पश्चिम दिशामें जो महानदी है उसके उत्तर तट पर एक गन्धिल नामका महादेश है। उसके विजयार्ध पर्वतकी उत्तर श्रेणीमें सूर्यप्रभ नगरका स्वामी राजा सूर्यप्रभ राज्य करता था। उसकी स्त्री का नाम धारिणी था। उन दोनोंके बड़ा पुत्र चिन्तागति दूसरा मनोगति और तीसरा चपलगति
१ समुपादत्त ल•। २ तन्त्रवोगता (?) ल•। ३ निजाय ल० । ४ महाशुभः ख०, ग० । महाशुचःल०।
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