________________
३३८
महापुराणे उत्तरपुराणम् केवलावगमात्प्राप्य संयम बहुभिः समम् । श्रतबुद्धितपोविक्रियौपद्धिविभूषितः ॥ ८॥ चारणत्वमपि प्राप्य प्रायोपगमनं श्रितः । सम्मेदे चारणोत्तुङ्गकूटे स्वाराधनाविधिः ॥ १०॥ जयन्तेऽनुत्तरे जातो विमाने लवसत्तमः । पुण्योत्तमानुभागोत्थमन्वभूत्सुचिरं सुखम् ॥ ११ ॥
पृथ्वीवृत्तम् वसुन्धरमहीपतिः प्रथमजन्मनि प्राप्त स
तपाः समजनिष्ट षोडश समुद्रमित्यायुषा । "सुरोऽजनि जनेश्वरोऽनुजप्रसेननामा ततो
बभूव बलसचमः सुखनिधिर्जयन्ते विभुः ॥ १२ ॥ इत्याचे भगवद्गुणभद्राचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसंग्रहे नमितीर्थकरजयसेन
चक्रवर्तिपुराणं परिसमाप्तं एकोनसप्ततितमं पर्व ॥ ६९ ॥
पुत्रके लिए राज्य दिया और अनेक राजाओंके साथ वरदत्त नामके केवली भगवानसे संयम धारण कर लिया। वह कुछ ही समयमें श्रुत बुद्धि तप विक्रिया और औषध आदि ऋद्धियोंसे विभूषित हो गया॥५७-६॥चारण ऋद्धि भी उसे प्राप्त हो गई। अन्तमें वह सम्मेदशिखरके चारण नामक ऊँचे शिखरपर प्रायोपगमन संन्यास धारण कर आत्माकी आराधना करता हा जयन्त नामक अनुत्तर विमानमें अहमिन्द्र हुआ और वहाँ उत्तम पुण्यकर्मके अनुभागसे उत्पन्न हुए सुखका चिरकाल के लिए अनुभव करने लगा ॥६०-६१ ॥ जयसेनका जीव पहले भवमें वसुन्धर नामका राजा था फिर समीचीन तपश्चरण प्राप्त कर सोलह सागरकी आयुवाला देव हुआ, वहाँसे चय कर जयसेन नामका चक्रवर्ती हुआ और फिर जयन्त विमानमें सुखका भाण्डार स्वरूप अहमिन्द्र हुआ ॥१२॥ इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध भगवद्गुणभद्राचार्य प्रणीत त्रिषष्टि लक्षण महापुराणके संग्रहमें नमिनाथ .
तीर्थंकर तथा जयसेन चक्रवर्ती के पुराणका वर्णन करनेवाला उनहत्तरवाँ पर्व समाप्त हुआ।
१ अहमिन्द्रः । २-मरोऽजनि ल ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org