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एकोनसप्ततितमं पर्व
द्वीपेsस्मिन्नुतरे भागे महत्यैरावताइये । लक्ष्मीमान् श्रीपुराधीशो वसुन्धर महीपतिः ॥ ७४ ॥ पद्मावतीवियोगेन भृशं निर्विण्णमानसः । वने मनोहरे रम्ये वरचर्माखिलेक्षिणः ॥ ७५ ॥ निर्णीय धर्मसद्भावं तनये विनयन्धरे । 'निवेशितात्मभारः सन् बहुभिर्भूभुजैः समम् ॥ ७६ ॥ संयमं सम्यगादाय चारित्रं दुश्वरं चरन् । स्वाराधनविधानेन महाशुक्रे सुरोऽभवन् ॥ ७७ ॥ षोडशान्ध्युपमस्वायुदिव्यान् भोगान् सुभुज्य सः । ततः प्रच्युत्य तत्तीर्थे वत्साख्य विषयेऽजनि ॥ ७८ ॥ नृपस्येक्ष्वाकुवंशस्य कौशाम्बीनगरेशिनः । तनूजो विजयाख्यस्य प्रभाकर्यां प्रभाधिकः ॥ ७९ ॥ सर्वलक्षणसम्पूर्णो जयसेनसमाह्वयः । त्रिसहस्रशरजीवी" षष्टिहस्तसमुच्छ्रितिः ॥ ८० ॥ तप्तचामीकरच्छायः स चतुर्दशरत्नभाक् । निधिभिर्नवभिः सेव्यो भोगैर्दशविधैः "सुखम् ॥ ८१ ॥ चिरमेकादशश्चक्रधरः कालमजीगमत् । अन्येद्युस्तुङ्गसौधाग्रे सुसुप्तोऽन्तः पुरावृतः ॥ ८२ ॥ कुर्वन् पर्वशशाङ्काभो दिगन्तरविलोकनम् । उल्काभिपतनं वीक्ष्य सुनिर्वेगपरायणः ॥ ८३ ॥ उच्चैः स्थितमिदं पश्य भास्वरं पर्ययद्वयम् । परित्यज्य सुसम्प्रापदधोगतिमपप्रभम् ॥ ८४ ॥ उन्नतमूर्जितं तेजो ममेति मदमावहन् । अनाचरन् हितं मूढः पारलौकिकमात्मने ॥ ८५ ॥ विषयेषु विषक्तः सन्नध्रुवेष्ववितर्पिषु । प्रयाति गतिमेतस्य परोऽप्यत्र प्रमादवान् ॥ ८६ ॥ इत्याकलय्य कालादिलब्ध्या चक्रेडवक्रधीः । त्यक्तुं चक्रादिसाम्राज्यं परिच्छियोच्छ्रितेच्छ्या ॥ ८७ ॥ "तु राज्यमनिच्छत्सु महीयःसु, कनीयसे । दत्वा पुत्राय साम्राज्यं वरदत्ताभिधायिनः ॥ ८८ ॥
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अथानन्तर-- इसी जम्बूद्वीपके उत्तर भाग में एक ऐरावत नामका बड़ा भारी क्षेत्र है उसके श्रीपुर नगर में लक्ष्मीमान् वसुन्धर नामका राजा रहता था ।। ७४ ।। किसी एक दिन पद्मावती स्त्रीके वियोगसे उसका मन अत्यन्त विरक्त हो गया जिससे वह अत्यन्त सुन्दर मनोहर नामके वनमें गया । वहाँ उसने वरचर्मं नामके सर्वज्ञ भगवान् से धर्मके सद्भावका निर्णय किया फिर विनयन्धर नामके पुत्र के लिए अपना सब भार सौंपकर अनेक राजाओं के साथ, संयम धारण कर लिया । तदनन्तर कठोर तपश्चरण कर समाधि मरण किया जिससे महाशुक्र स्वर्गमें देव हुआ ।। ७५–७७ ॥ वहाँ पर उसकी सोलह सागरकी आयु थी, दिव्य भोगोंका अनुभव कर वह वहाँ से च्युत हुआ और इन्हीं नमिनाथ तीर्थंकरके तीर्थमें वत्स देशकी कौशाम्बी नगरीके अधिपति, इक्ष्वाकुवंशी राजा बिजयकी प्रभाकरी नामकी देवीसे कान्तिमान पुत्र हुआ ॥ ७८७६ ॥ वह सर्व लक्षणोंसे युक्त था, जयसेन उसका नाम था, तीन हजार वर्षकी उसकी आयु थी. साठ हाथकी ऊँचाई थी, तपाये
सुवर्णके समान कान्ति थी, वह चौदह रत्नोंका स्वामी था, नौ निधियाँ सदा उसकी सेवा करती , ग्यारहवाँ चक्रवर्ती था और दश प्रकारके भोग भोगता हुआ सुखसे समय बिताता था। किसी एक दिन वह ऊँचे राजभवनकी छत पर अन्तःपुरवर्ती जनों के साथ लेट रहा था।।८०-८२ ॥ पौर्णमासीके न्द्रमाके समान वह समस्त दिशाओंको देख रहा था कि इतनेमें ही उसे उल्कापात दिखाई दिया । से देखते ही विरक्त होता हुआ वह इस प्रकार विचार करने लगा कि देखो यह प्रकाशमान वस्तु अभी तो ऊपर थी और फिर शीघ्र ही अपनी दो पर्यायें छोड़कर कान्तिरहित होती हुई नीचे चली गई ।। ८३-८४ ॥ 'मेरा तेज भी बहुत ऊँचा है, तथा बलवान् है' इस तरहके मदको धारण करता हुआ जो मूढ़ प्राणी अपनी आत्माके लिए हितकारी परलोक सम्बन्धी कार्यका आचरण नहीं करता है और उसके विपरीत नश्वर तथा संतुष्ट नहीं करनेवाले विषयोंमें आसक्त रहता है वह प्रमादी मनुष्य भी इसी उल्काकी गतिको प्राप्त होता है अर्थात् तेज रहित होकर अधोगतिको जाता है । ८५-८६ | ऐसा विचार कर सरल बुद्धिके धारक चक्रवर्तीने काल आदि लब्धियोंकी अनुकूलता से चक्र आदि समस्त साम्राज्यको छोड़नेका निश्चय कर लिया । वह अपने बड़े पुत्रोंके लिए राज्य देने लगा परन्तु उन्होंने तप धारण करनेकी उदात्त इच्छासे राज्य लेनेकी इच्छा नहीं की तब उसने छोटे १ निर्विशितात्म-ल० । २ स ल० । ३ चिन्त्यः पाठः (भूभुग्भिर्बहुभिः समम् ) । ४ प्रभंकर्यो ख०, 'हायनोऽस्त्री शरत्समाः' इत्यमरः । ६ वरैः घ०, ख० । ७ परिच्छेद्य मच्छया घ० । पुत्रेषु
ग। 'तुक् तोकं चात्मजः प्रजाः '
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