________________
एकोनसप्ततितमं पर्व
३३५
साभिषेक सुरैः प्राप्य परिनिःक्रान्तिपूजनम् । यानमुत्तरकुर्वाख्यं समारुह्य मनोहरम् ॥ ५३॥ गस्वा चैत्रवनोचानं षष्ठोपवसनं श्रितः । आषाढकालपक्षेऽश्विनक्षत्रे दशमीदिने ॥ ५४॥ अपराहे सहस्रण क्षत्रियाणां सहाग्रहीत् । संयम सयमापाचं सज्ञानं च चतुर्थकम् ॥ ५५ ॥ भोक्तुं वीरपुर तस्मै दत्तो गतवते नृपः । सुवर्णवर्णों दत्त्वाममवापाश्चर्यपञ्चकम् ॥ ५६ ॥ छाशस्थ्येन ततः काले प्रयाते नववत्सरे । निजदीक्षावने रम्ये मूले वकुलभूरुहः ॥ ५७ ॥ तस्य षष्ठोपवासस्य नक्षत्रे ऽश्वाभिधानके । मार्गशीर्षशुचौ पक्षे दिनान्ते केवलं विभोः ॥ ५८ ॥ दिने तृतीयनन्दायामभूदखिलगोचरम् । 'नाकनायकसञ्चार्यतुर्यकल्याणभागिनः५ ॥ ५९ ।। सुप्रभार्यादयः सप्तदशासन् गणनायकाः । चतुःशतानि पञ्चाशत् सर्वपूर्वधरा मताः ॥ ६०॥ शिक्षकाः षट्शतद्वादशसहस्राणि सद्मताः । त्रिज्ञानधारिणां सक्था सहस्रं षट् शताधिकम् ॥३१॥ तावन्तः पञ्चमज्ञाना मुनयो विक्रियद्धिंकाः । सर्वे सार्द्धसहस्रं स्युमनःपर्ययबोधनाः ॥ ६२ ॥ शून्यपञ्चद्विकैकोकास्त्यकसङ्गाः प्रकीर्तिताः । सहस्र वादिनां सङ्ख्या ते सर्वेऽपि समुचिताः ॥ ६३ ॥ विंशतिः स्युः सहस्राणि मङ्गिनीप्रमुखायिकाः । चत्वारिंशत्सहस्राणि तदष्टांशाधिका मताः ॥६॥ श्रावका लक्षमेकं तु त्रिगुणाः श्राविकास्ततः । देवा देवोप्यसङ्ख्यातास्तिर्यञ्चः सहृयया मिताः ॥ १५॥ एवं द्वादशसङ्ख्यान गणैनम्नैर्नमीश्वरः । सद्धर्मदेशनं कुर्ववार्यक्षेत्राणि सर्वतः ॥ ६६॥
क्षयोपशम होनेसे उनके प्रशस्त संज्वलनका उदय हो गया अर्थात् प्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया . लोभका क्षयोपशम और संज्वलन क्रोध मान माया लोभका मन्द उदय रह गया जिससे रत्नत्रयको प्राप्त कर उन्होंने सुप्रभ नामक पुत्रको अपना राज्य-भार सौंप दिया ॥५२॥ तदनन्तर देवोंके द्वारा किये हुए अभिषेकके साथ-साथ दीक्षा-कल्याणकका उत्सव प्राप्त कर वे उत्तरकुरु नामकी मनोहर पालकी पर सवार हो चैत्रवन नामक उद्यानमें गये। वहाँ उन्होंने बेलाका नियम लेकर आषाढकृष्ण दशमीके दिन अश्विनी नक्षत्रमें सायंकालके समय एक हजार राजाओंके साथ संयम धारण कर लिया
और उसी समय संयमी जीवोंके प्राप्त करनेके योग्य चतुर्थ-मनःपर्ययज्ञान भी प्राप्त कर लिया ॥५३-५५ ।। पारणाके लिए भगवान् वीरपुर नामक नगरमें गये वहाँ सुवर्णके समान कान्तिवाले राजा दत्तने उन्हें आहार दान देकर पञ्चाश्चर्य प्राप्त किये ॥५६॥ तदनन्तर जब छद्मस्थ अवस्थाके नव वर्ष बीत गये तब वे एक दिन अपने ही दीक्षावनमें मनोहर बकुल वृक्षके नीचे वेलाका नियम लेकर ध्यानारूढ़ हुए। वहीं पर उन्हें मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी * सीसरी नन्दा तिथि अर्थात् एकादशीके दिन सायंकालके समय समस्त पदार्थोंको प्रकाशित करनेवाला केवलज्ञान उत्पन्न हुआ-उसी समय इन्द्र आदि देवोंने चतुर्थ-ज्ञानकल्याणका उत्सव किया ॥५७-५६॥ सुप्रभार्यको आदि लेकर उनके सत्रह गणधर थे। चार सौ पचास समस्त पूर्वोके जानकार थे, बारह हजार छह सौ अच्छे व्रतोंको धारण करने वाले शिक्षक थे, एक हजार छह सौ अवधिज्ञानके धारकोंकी संख्या थी. इतने ही अर्थात एक हजार छह सौ ही केवल ज्ञानी थे, पन्द्रह सौ विक्रियाऋद्धिके धारक थे, बारह सौ पचास परिग्रह रहित मनःपयेयज्ञानी थे और एक हजार वादी थे। इस तरह सब मुनियोंकी संख्या बीस हजार थी। मङ्गिनीको आदि लेकर पैंतालीस हजार आर्यिकाएं थीं,एक लाख श्रावक थे, तीन लाख श्राविकाएं थीं, असंख्यात देव देवियां थीं और संख्यात तिर्यश्च थे॥६०-६५।। इस प्रकार समीचीन धर्मका उपदेश करते हुए भगवान् नमिनायने नम्रीभूत बारह सभाओंके साथ आर्य क्षेत्रमें सब ओर विहार किया। जब उनकी आयुका एक माह बाकी रह गया तब वे विहार बन्द कर सम्मेदशिखर पर जा विराज
१ प्राप्तपरिनिष्कान्तिपूजनः ख०, घ०। २ चित्रवनोद्यानं म०, ल०, । ३ संयमासाद्यं प० । ४ नायनायक घ०, ल०। ५ भोगिनः म०। ६ संख्यात म०, घ० ।
*ज्यौतिष शास्त्रमें 'नन्दा भद्रा जया रिक्ता पूर्णा च तिथयः क्रमात् इस श्लोकके क्रमानुसार प्रतिपदा आदि तिथियोंके क्रमसे नन्दा, भद्रा, जया, रिक्ता और पूर्ण नाम हैं । षष्ठीसे दशमी तककी तथा एकादशीसे पूर्णिमा तककी तिथियोंके भी यही नाम हैं इस प्रकार तीसरी नन्दा तिथि एकादशी होती है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org