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एकोनसप्ततितमं पवे
afप्पला तन्महादेवी वसुधारादिपूजिता । श्रीह्रीष्टत्यादिभिः सेव्या सुखसुप्तानिशावधौ ॥ २५ ॥ 'शरदादिद्वितीयायां नक्षत्रेष्वादिमे सति । स्वर्गावतरणे भर्तुर्दृष्ट्रा स्वमान् पुरोदितान् ॥ २६ ॥ स्ववक्राब्जप्रविष्टेभमप्यालोक्य विनिद्रिका । प्रभातपटहध्वान श्रवणाविष्कृतोत्सवा ॥ २७ ॥ अपृच्छत् फलमेतेषां नृपं देशावधीक्षणम् । सोऽभ्यवादीद्भवद्गर्भे भावितीर्थकृदित्यदः ॥ २८ ॥ तदैवागस्य देवेन्द्राः स्वर्गावतरणोत्सवम् । विधाय स्वनियोगेन निजधामागमत्समम् ॥ २९ ॥ आषाढे स्वातियोगे तं कृष्णपक्षे महौजसम् । दशम्यां विश्वलोकेशमसूत तनुजोत्तमम् ॥ ३० ॥ देवा द्वितीयकल्याणमप्यभ्येत्य तदा व्यधुः । नमिनामानमध्येनं व्याहरन् मोहभेदिनम् ॥ ३१ ॥ मुनिसुव्रततीर्थे शसन्ताने वर्षमानतः । गतेषु षष्टिलक्षेषु नमिनाथसमुद्भवः ॥ ३२ ॥ आदर्शसहस्राणि वर्षाणां परमं मतम् । उत्सेधो धनुषां पञ्चदश चास्याभिधीयते ॥ ३३ ॥ जातरूपद्युतिः सार्द्धद्विसहस्राब्दसम्मिते । गते कुमारकालेऽभिषेकमापत्सराज्यकम् ॥ ३४ ॥ राज्ये पञ्चसहस्राणि वत्सराणामगुर्विभोः । तदा प्रावृड्धनाटोपसङ्कटे गगनाङ्गणे ॥ ३५ ॥ "देवं वनविहाराय गतवन्तं महोदयम् । गजस्कन्धसमारूढं भानुमन्तमिवापरम् ॥ ३६ ॥ नभस्तलगतौ देवकुमारौ विहितानती । एवं विज्ञापयामासतुर्बद्धकरपङ्कजौ ॥ ३७ ॥ द्वीपेsस्मिन् प्राग्विदेहेऽस्ति विषयो वत्सकावती । सुसीमा नगरी तत्र विमानादपराजितात् ॥ ३८ ॥
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गमन करते रहते थे वहाँ के मनुष्यों में अनवस्थिति अस्थिरता नहीं थी । क्रूरता यदि थी तो दुष्ट ग्रहोंमें ही थी वहाँ के मनुष्यों में क्रूरता दुष्टता - निर्दयता नहीं थी और पिशाचता -पिशाच जाति यदि थी तो देवों में ही थी वहाँ के मनुष्यों में पिशाचता-नीचता नहीं थी ।। २२-२४ ॥ विजयमहाराजकी महादेवीका नाम वप्पिला था, देवोंने रत्नवृष्टि आदिसे उसकी पूजा की थी, श्री, ही, धृति आदि देवियाँ उसकी सेवा करती थीं। शरद् ऋतुकी प्रथम द्वितीया अर्थात् श्रश्विन कृष्ण द्वितीयाके दिन अश्विनी नक्षत्र और रात्रिके पिछले पहर जब कि भगवानका स्वर्गावतरण हो रहा था तब सुख से सोई हुई महारानीने पहले कहे हुए सोलह स्वप्न देखे ।। २५-२६ ।। उसी समय उसने अपने मुखमें प्रवेश करता हुआ एक हाथी देखा। देखते ही उसकी निद्रा दूर हो गई और प्रात:कालके बाजोंका शब्द सुननेसे उसके हर्षका ठिकाना नहीं रहा ।। २७ ।। उसने देशावधि ज्ञानरूपी नेत्रको धररण करनेवाले राजासे इन स्वप्नोंका फल पूछा और राजाने भी कहा कि तुम्हारे गर्भमें भावी तीर्थंकरने अवतार लिया है ॥ २८ ॥ उसी समय इन्द्रोंने आकर अपने नियोगके अनुसार भगवान्का स्वर्गावतरण महोत्सव - गर्भकल्याणकका उत्सव किया और तदनन्तर सब साथ ही साथ अपने अपने स्थानपर चले गये || २६ ॥ वप्पिला महादेवीने आषाढ़ कृष्ण दशमीके दिन स्वाति नक्षत्र योग में समस्त लोकके स्वामी महाप्रतापी जेष्ठपुत्रको उत्पन्न किया ॥ ३० ॥ देवोंने उसी समय आकर जन्मकल्याणकका उत्सव किया और मोह शत्रुको भेदन करनेवाले जिन - बालकका मिनाथ नाम रखा ॥ ३१ ॥ भगवान् मुनिसुव्रतनाथ तीर्थंकरकी तीर्थ - परम्परामें जब साठ लाख वर्ष दीत चुके थे तब नमिनाथ तीर्थंकरका जन्म हुआ था ॥ ३२ ॥ भगवान् नमिनाथकी आयु दश हजार वर्षकी थी, शरीर पन्द्रह धनुष ऊँचा था और कान्ति सुवर्णके समान थी । जब उनके कुमारकाल के
ढाई हजार वर्ष बीत गये तब उन्होंने अभिषेकपूर्वक राज्य प्राप्त किया था ।। ३३ - ३४ ॥ इस प्रकार राज्य करते हुए भगवान्को पाँच हजार वर्ष बीत गये । एक दिन जब कि आकाश वर्षाऋतुके बादलोंके समूहसे व्याप्त हो रहा था तब महान् अभ्युदयके धारक भगवान् नमिनाथ दूसरे सूर्य के समान हाथीके कन्धेपर आरूढ़ होकर वन विहारके लिए गये || ३५-३६ ॥ उसी समय आकाशमार्ग से आये हुए दो देवकुमार हस्तकमल जोड़कर नमस्कार करते हुए इस प्रकार प्रार्थना करने लगे ॥ ३७ ॥ वे कहने लगे कि इसी जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्रमें एक वत्सकावती नामका
१ शारदादि-म० । २ वनं वनविहाराय म० । एवं वनविहाराय ग०, ल० ।
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