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महापुराणे उत्तरपुराणम् अवतीर्य समुत्पन्नस्तीर्थनाथोऽपराजितः । तस्य केवलपूजार्थ देवेन्द्राः समुपागताः॥ ३५ ॥ तत्सभायामभूत् प्रश्नः किमस्ति भरतेऽधुना । कश्चित्तीर्थकृदित्याह सोप्येवं सकलार्थहक ॥ ४० ॥ वङ्गाख्यदेशे मिथिलानगरे नमिनायकः । भावितीर्थकरः पुण्यादवतीर्णोऽपराजितात् ॥ ४॥ देवोपनीतभोगानां भोक्ता सम्प्रति साध्विति । तपः प्राग्धातकीखण्डे कृत्वा सौधर्मनामनि ॥ ४२ ॥ सम्भूयेतो द्वितीयेऽति गत्वा तद्वचनश्रतः। भवन्तमीक्षितं पूज्यमावामैव सकौतुकौ ॥१३॥ इति सोऽपि समासबकेवलावगमोदयः । चित्ते विधाय तत्सर्व महीशः प्राविशत्पुरम् ॥४४॥ तन्त्र स्वभवसम्बन्ध स्मृत्वा तीर्थकरं च तम् । आजवं जवसंजाससद्भाव भावयन्मुहुः ॥ ४५ ॥ अनादिबन्धनैर्गाढं वध्वारमात्मानमात्मना । कायकारागृहे स्थित्वा पापी पक्षीव पक्षरे ॥ ४६॥ कुमरो वार्पितालानो कलयत्पलमात्मनः । नाना दुःखानि भुआनो भूयस्तैरेव रजितः ॥ १७ ॥ इन्द्रियार्थेषु संसक्तो रतितीव्रतरोदयात् । अशुचिष्वेवसम्बृद्धतृष्णोऽवस्करकीटवत् ॥ ४८॥ बिभ्यन्मृत्योस्तमाधावन् वयंदुःखस्तदर्जयत् । विपर्यस्तमतिः कष्टमार्तरौद्राहिताशया ॥ ५९॥ भवे भाम्यत्यविश्राम्यन् प्रताम्यन् पापपाकतः । दृढां निरूढां धिमूढिमभीष्टार्थविघातिनीम् ॥ ५० ॥ इति निर्वेद संयोगागोगरागातिदूरगः । सारस्वतादिसर्वापरागामरसमचिंतः॥ ५१ ॥
क्षयोपशमसम्प्राप्तशस्त संज्वलनोदयः । लब्धबोधिः सुतं राज्ये निजे संयोज्य सुप्रभम् ॥ ५२ ॥ देश है। उसकी सुसीमा नगरीमें अपराजित विमानसे अवतार लेकर अपराजित नामके तीर्थङ्कर उत्पन्न हुए हैं। उनके केवलज्ञानकी पूजाके लिए सब इन्द्र आदि देव आये थे॥३८-३९ ।। उनकी सभामें प्रश्न हुआ कि क्या इस समय भरतक्षेत्रमें भी कोई तीर्थङ्कर है ? सर्वदर्शी अपराजित भगवान् ने उत्तर दिया कि इस समय वङ्गदेशके मिथिलानगरमें नमिनाथ स्वामी अपराजित विमानसे अवतीर्ण हुए हैं वे अपने पुण्योदयसे तीर्थंकर होनेवाले हैं॥४०-४१॥ इस समय वे देवोंके द्वारा लाये हुए भोगोंका अच्छी तरह उपभोग कर रहे हैं-गृहस्थावस्थामें विद्यमान हैं। हे देव ! हम दोनों अपने पूर्व जन्ममें धातकीखण्ड द्वीपके रहनेवाले थे वहाँ तपश्चरण कर सौधर्म नामक स्वर्गमें उत्पन्न हुए हैं। दूसरे दिन हमलोग अपराजित केवलीकी पूजाके लिए गये थे। वहाँ उनके वचन सुननेसे पूजनीय आपके दर्शन करनेके लिए कौतुकवश यहाँ आये हैं॥४२-४३ ॥ जिन्हें निकटकालमें ही केवलज्ञानकी प्राप्ति होनेवाली है ऐसे भगवान् नमिनाथ देवोंकी उक्त समस्त हृदयमें धारण कर नगरमें लौट आये ॥४४॥ वहाँ वे विदेह क्षेत्रके अपराजित तीर्थकर तथा उनके साथ अपने पूर्वभवके सम्बन्धका स्मरण कर संसारमें होनेवाले भावोंका बार-बार विचार करने लगे ॥४५॥ वे विचार करने लगे कि इस आत्माने अपने आपको अपने आपके ही द्वारा अनादिकालसे चले आये बन्धनों से अच्छी तरह जकड़ कर शरीर-रूपी जेलखानेमें डाल रक्खा है और जिस प्रकार पिंजड़ेके भीतर पापी पक्षी दुःखी होता है अथवा आलान-खम्भेसे बँधा हुआ हाथी दु:खी होता है उसी प्रकार यह आत्मा निरन्तर दुःखी रहता है। यह यद्यपि नाना दुःखोंको भोगता है तो भी उन्हीं दुःखोंमें राग करता है । रति नोकषायके अत्यन्त तीव्र उदयसे यह इन्द्रियोंके विषयमें आसक्त रहता है और विष्ठाके कीड़ाके समान अपवित्र पदार्थोंमें तृष्णा बढ़ाता रहता है ॥४८॥ यह प्राणी मृत्यसे डरता है किन्तु उसी ओर दौड़ता है, दुःखोसे छूटना चाहता है किन्तु उनका ही सञ्चय करता है । हाय-हाय, बड़े दुःखकी बात है कि आर्त और रौद्र ध्यानसे उत्पन्न हुई तृष्णासे इस जीवकी बुद्धि विपरीत हो गई है। यह बिना किसी विश्रामके चतुर्गतिरूप भवमें भ्रमण करता है और पापके उदयसे दुःखी होता रहता है । इष्ट अर्थका विघात करनेवाली, दृढ़ और अनादि कालसे चली आई इस मूर्खताको भी धिक्कार हो ॥४६-५०॥
इस प्रकार वैराग्यके संयोगसे वे भोग तथा रागसे बहुत दूर जा खड़े हुए। उसी समय सारस्वत आदि समस्त वीतराग देवोंने-लौकान्तिक देवोंने उनकी पूजा की ।। ५१ ॥ कर्मोका
१ मायामैवः ख०, ग०, मावामेवं म०, ल० (श्रावाम, ऐव, इण् धातोलबुत्तमपुरुषद्वितीयवचनस्य रूपम्-भावाम् श्रागतौ इति भावः)।२ निर्वेदसंवेगात् ल । ३ प्रशस्त ल. पाठे छन्दोमङ्गः।
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