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महापुराणे उत्तरपुराणम राज्यभार समारोप्य श्रीदत्ते स्वसुते सति । लब्धक्षायिकसम्यक्त्वः शमी संयममाददे ॥ १४ ॥ स धृत्वैकादशाङ्गानि बद्ध्वा षोडशकारणैः । अन्त्यनामादिकर्माणि पुण्यानि पुरुषोत्तमः ॥ १५॥ स्वायुरन्ते समाराध्य विमाने 'लवसरामः । देवोऽपराजिते पुण्यादुत्तरेऽनुत्तरेऽभवत् ॥१६॥ त्रयविंशत्पयोध्यायुरेकारत्निसमुच्छूितिः । निश्वासाहारलेश्यादिभावैस्तत्रोदितैर्युतः ॥ १७ ॥ जीवितान्तेऽहमिन्द्रेऽस्मिन् षण्मासैरागमिष्यति । जम्बूपलक्षिते द्वीपे विषये बङ्गनामनि ॥ १८ ॥ मिथिलायां महीपालः श्रीमान् गोत्रेण काश्यपः । विजयादिमहाराजो विख्यातो वृषभान्वये ॥ १९ ॥ अनुरक ग्यधात् कृत्स्नमुद्यचिव रविर्जगत् । स्वविरागाद्विरक्त तत् सोऽतपत्तस्य तादृशम् ॥ २० ॥ 'भवृणीत गुणालिस्तं लक्ष्मीश्च सुकृतोदयात् । पुष्कलाविष्क्रिय तस्मिन् पुरुषार्थत्रयं ततः ॥ २१ ॥ तस्य राज्ये रवावेव तापः कोपोऽपि कामिषु । विग्रहाख्या तनुष्वेव मुनिष्वेव विरागता ॥ २२ ॥ परार्थग्रहणं नाम कुकविष्वेव बन्धनम् । काव्येष्वेव विवादश्च विद्वत्स्वेव जयार्थिषु ॥ २३ ॥ शरव्याप्तिः सरित्स्वेव ज्योतिःवेवानवस्थितिः । क्रौर्य ऊरग्रहेष्वेव देवेष्वेव पिशाचता ॥ २४ ॥
साथ स्वरूप समझा ।। १२-१३ ॥ तदनन्तर श्रीदत्त नामक पुत्रके लिए राज्य देकर उसने क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लिया और शान्त होकर संयम धारण कर लिया ॥ १४॥ उस पुरुषोत्तमने ग्यारह अङ्ग धारण कर सोलह कारण भावनाओंके द्वारा तीर्थकर नामक पुण्य कर्मका बन्ध किया ॥१५॥ और आयुके अन्तमें समाधिमरण कर अपराजित नामके श्रेष्ठ अनुत्तर विमानमें अतिशय शोभायमान देव हुआ॥१६॥ वहाँ उसकी तैतीस सागरकी आयु थी, एक हाथ ऊंचा शरीर था, तथा श्वासोच्छवास, आहार, लेश्या आदि भाव उस विमान-सम्बन्धी देवोंके जितने बतलाये गये हैं वह उन सबसे सहित था ॥ १७॥ जब इस अहमिन्द्रका जीवनका अन्त आया और वह छह माह बाद यह वहाँ से चलनेके लिए तत्पर हुआ तब जम्बूवृक्षसे सुशोभित इसी जम्बूद्वीपके वङ्ग नामक देशमें एक मिथिला नामकी नगरी थी। वहाँ भगवान वृषभदेवका वंशज, काश्यपगोत्री विजयमहाराज नामसे प्रसिद्ध सम्पत्तिशाली राजा राज्य करता था ।। १८-१६ । जिस प्रकार उदित होता हुआ सूर्य संसारको अनुरक्त-लालवर्णका कर लेता है उसी प्रकार उसने राज्यगद्दी पर आरूढ़ होते ही समस्त संसारको अनुरक्तप्रसन्न कर लिया था और ज्यों-ज्यों सूर्य स्वयं राग-लालिमासे रहित होता जाता है त्यों-स्यों वह संसारको विरक्त--लालिमासे रहित करता जाता है इसी प्रकार वह राजा भी ज्यों-ज्यों विराग-प्रसन्नतासे रहित होता जाता था त्यों-त्यों संसारको विरक्त-प्रसन्नतासे रहित करता जाता था। सारांश यह है कि संसारकी प्रसन्नता और अप्रसन्नता उसीपर निर्भर थी सो ठीक ही है क्योंकि उसने वैसा ही तप किया था और वैसा ही उसका प्रभाव था ।।२०।। चूंकि पुण्य कर्मके उदयसे अनेक गुणोंके समूह तथा लक्ष्मीने उस राजाका वरण किया था इसलिए उसमें धर्म, अर्थ, कामरूप तीनों पुरुषार्थ अच्छी तरह प्रकट हुए थे ॥ २१ ॥ उस राजाके राज्यमें यदि तापउष्णत्व था तो सूर्यमें ही था अन्यत्र ताप-दुःख नहीं था, क्रोध था तो सिर्फ कामी मनुष्योंमें ही था वहाँ के अन्य मनुष्योंमें नहीं था, विग्रह नाम था तो शरीरोंमें हीथा अन्यत्र नहीं,विरागता-वीतरागता यदि थी तो मुनियों में ही थी वहाँ के अन्य मनुष्योंमें विरागता-स्नेहका अभाव नहीं था। परार्थ ग्रहणः-अन्य कवियोंके द्वारा प्रतिपादित अर्थका ग्रहण करना कुकवियोंमें ही था अन्य मनुष्योंमें परार्थग्रहण-दूसरेके धनका ग्रहण करना नहीं था। बन्धन-हरबन्ध, छत्रबन्ध आदिकी रचना काव्योंमें ही थी वहाँ के अन्य मनुष्योंमें बन्धन-पाश आदिसे बाँधा जाना नहीं था। विवाद-शास्त्रार्थ यदि था तो विजयकी इच्छा रखनेवाले विद्वानोंमें ही था वहाँ के अन्य मनुष्योंमें विवाद-कलह नहीं था। शरव्याप्ति-एक प्रकारके तृणका विस्तार नदियोंमें ही था वहाँ के मनुष्योंमें शरव्याप्ति-वाणोंका विस्तार नहीं था। अनवस्थिति-अस्थिरता यदि थी तो ज्यौतिष्क देवोंमें ही थी वे ही निरन्तर
१ अहमिन्द्रः। २ ल. पुस्तके तु 'श्रवृणीत गुणानेव सर्वान् मुकतोदयात्' इति पाठः । अत्र द्वितीयपादे बमोमनः।
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