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सप्ततितमं पर्व
क्षान्स्यादिदश'धर्मारालम्बनं यमुदाहरन् । सन्तः सद्धर्मचक्रस्य स नेमिः शंकरोऽस्तु नः ॥१॥ संवेगजननं पुण्यं पुराणं जिनचक्रिणाम् । बलानां च श्रुतज्ञानमेतद् वन्दे त्रिशुद्धये ॥२॥ पूर्वानुपूर्व्या वक्ष्येऽहं कृतमङ्गलसस्क्रियः । पुराणं हरिवंशाख्यं यथावृत्तं यथाश्रुतम् ॥ ३॥ अथ जम्बूमति द्वीपे विदेहेऽपरनामनि । 'सीतोदोदक्तटे देशे सुगन्धिलसमाये ॥४॥ धुरे सिंहपुरे ख्यातो भूपोऽहंदाससंज्ञकः । देव्यस्य जिनदशाख्या तयोः पूर्वभवार्जितात् ॥ ५ ॥ पुण्योदयात् समुद्भुतकामभोगैः सतृप्तयोः । काले गच्छत्यथान्येचुरहतां परमेष्ठिनाम् ॥ ६ ॥ आष्टाह्निकमहापूजां विधाय नृपतिप्रिया । कुलस्य तिलकं पुत्रं लप्सीयाहमिति स्वयम् ॥ ७ ॥ आशास्यासौ सुखं सुप्ता निशायां सुप्रसन्नधीः । सिंहे भार्केन्दुपद्माभिषेकानैक्षिष्ट सुव्रता ॥ ८ ॥ स्वमानन्तरमेवास्या गर्ने प्रादुरभूत्कृती। नवमासावसानेऽसावसूत सुतमूर्जितम् ॥ ९॥
जन्मनः प्रभृत्यन्यैरजय्यस्तत्पिताऽभात् । ततोऽपराजिताख्यानमकुर्वस्तस्य बान्धवाः ॥१०॥ रूपादिगुणसम्पत्त्या साद्धं वृद्धिमसावगात् । आयौवन मनोहारी सुरेन्द्रो वा दिवौकसाम् ॥११॥ ती मनोहारोद्यानगतं विमलवाहनम् । तीर्थकर्तारमाकर्ण्य वनपालमुखानपः ॥ १२ ॥ स्वान्तःपुरपरीवारपरीतो भक्तिचोदितः । गत्वा प्रदक्षिणीकृत्य मुहुर्मुकुलिताञ्जलिः ॥१३॥ प्रप्रणम्य समभ्यय॑ गन्धपुष्पाक्षतादिभिः । पीतधर्मामृतस्तस्मादकस्माद् भोगनिस्पृहः ॥ १४ ॥
अथानन्तर-सज्जन लोग जिन्हें उत्तम क्षमा आदि दश धर्म रूपी अरोंका अवलम्बन बतलाते हैं और जो समीचीन धर्मरूपी चक्रकी हाल हैं ऐसे श्री नेमिनाथ स्वामी हम लोगोंको शान्ति करनेवाले हों॥१॥ जिनेन्द्र भगवान् नारायण और बलभद्र का पुण्यवर्धक पुराण संसारसे भय उत्पन्न करनेवाला है इसलिए इस श्रतज्ञानको मन-वचन कायकी शुद्धिके लिए वन्दना करता हूं ॥२॥ मङ्गलाचरण रूपी सरिक्रया करके मैं हरिवंश नामक पुराण कहूँगा और वह भी पूर्वाचार्यों के अनुसार जैसा हुआ है अथवा जैसा सुना है वैसा ही कहूंगा ॥३॥ इसी जम्बूद्वीपके पश्चिम विदेह क्षेत्रमें सीतोदा नदीके उत्तर तट पर सुगन्धिला नामके देशमें एक सिंहपुर नामका नगर है उसमें अर्हद्दास नामका राजा राज्य करता था। उसकी स्त्रीका नाम जिनदत्ता था। दोनों ही पूर्वभवमें संचित पुण्यकर्मके उदयसे उत्पन्न हुए कामभोगोंसे संतुष्ट रहते थे। इस प्रकार दोनोंका सुखसे समय बीत रहा था। किसी एक दिन रानी जिनदत्ताने श्री जिनेन्द्र भगवान्की अष्टाह्निका सम्बन्धी महापूजा करनेके बाद आशा प्रकट की कि मैं कुलके तिलकभूत पुत्रको प्राप्त करूँ'। ऐसी आशा कर वह बड़ी प्रसन्नतासे रात्रिमें सुखसे सोई। उसी रात्रिको अच्छे व्रत धारण करनेवाली रानीने सिंह, हाथी, सूर्य, चन्द्रमा और लक्ष्मीका अभिषेक इस प्रकार पाँच स्वप्न देखे। स्वप्न देखनेके बाद ही कोई पुण्यात्मा उसके गर्भ में अवतीर्ण हुआ और नौ माह बीत जानेपर रानीने बलवान् पुत्र उत्पन्न किया। उस पुत्रके जन्म समयसे लेकर उसका पिता शत्रुओं द्वारा अजय हो गया था इसलिए भाई-बान्धवोंने उसका नाम अपराजित रक्खा ॥४-१०।। वह रूप आदि गुणरूपी सम्पत्तिके साथ साथ यौवन अवस्था तक बढ़ता गया इसलिए देवोंमें इन्द्रके समान सुन्दर दिखने लगा ॥११॥ तदनन्तर किसी एक दिन राजाने वनपालके मुखसे सुना कि मनोहर नामके उद्यानमें विमलवाहन नामक तीर्थकर पधारे हुए हैं। सुनते ही वह भक्तिसे प्रेरित हो अपनी रानियों तथा परिवारके लोगोंके साथ वहाँ गया। वहाँ जाकर उसने बारबार प्रदक्षिणाएँ दीं, हाथ जोड़े, प्रणाम किया, गन्ध, प अक्षत आदिके द्वारा अच्छी तरह पूजा की तथा धर्मरूपी अमृतका पान किवा । यह सब
- १ दशाराधर्मालम्बन (१)ल. २ श्रीसीतोदरटेख.। ३ मनोहरोद्याने ग०, म०, ख.।
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