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महापुराणे उत्तरपुराणम् भव्यानुग्रहमुख्यात्मप्रवृत्तिः सोऽप्यभाषत । स्ववाक्प्रसरसज्ज्योत्स्ना समाहादिततत्समः ॥ ६८१ ॥ प्रमाणनयनिक्षेपानुयोगैानहेतुभिः । गुणमुख्यनयादानविशेषबललाभतः ॥ ६८२॥ स्याच्छब्दलान्छितास्तित्वनास्तित्वाद्यन्तसन्ततम् । जीवादीनां पदार्थानां तत्त्वमाप्तस्वलक्षणम् ॥ ६८३ ॥ मार्गणा गुणजीवानां समासं संसृतिस्थितिम् । अन्यच्च धर्मसम्बद्धं व्यक्तं युक्तिसमाश्रितम् ॥ ६८४ ॥ कर्मभेदान् फलं तेषां सुखदुःखादिभेदकम् । बन्धमोचनयोहेतुं स्वरूपं मुक्तिमुक्तयोः ॥ ६८५ ॥ इति धर्मविशेषं तत् ततः श्रुत्वा मनीषिणः । सर्वे रामादयोऽभूवन् गृहीतोपासकवताः ॥ ६८६ ॥ निदानशल्यदोषेण भोगासक्तः स केशवः । बध्वायु रकं घोरं नागृहीदर्शनादिकम् ॥ ६८७ ॥ एवं संवत्सरानीत्वा साकेते कतिचित्सुखम् । तदाधिपत्यं भरतशत्रुघ्नाभ्यां प्रदाय तौ ॥ ६८८ ॥ स्वयं स्वपरिवारेण गत्वा वाराणसी पुरीम् । प्राविक्षतामधिक्षिप्य शकलीला स्वसम्पदा ॥ ६८९ ॥ सुतो विजयरामाख्यो रामस्यामरसन्निभः । पृथिवीचन्द्रनामाभूच्चन्द्रामः केशवस्य च ॥ ६९० ॥ अन्यैश्च पुत्रपौत्राद्यैः परीतौ तौ धृतोदयौ । नयतःस्म सुखं कालं त्रिवर्णफलशालिनौ ॥ ६९१॥ कदाचिल्लक्ष्मणो नागवाहिनीशयने सुखम् । १सुप्तो न्यग्रोधवृक्षस्य भम्जनं मतदन्तिना ॥६९२॥ सैहिकेयनिगीार्करसातलनिवेशनम् । सुधाधवलितोत्तङ्गप्रासादेकांशविच्युतिम् ॥ ६९३ ॥ स्वप्ने दृष्ट्वा समुत्थाय समासाद्य निजाग्रजम् । स्वप्नान् संप्रश्रयं सर्वान् यथादृष्टान्न्यवेदयत् ॥६९४॥ पुरोहितस्तदाकर्ण्य फलं तवेत्थमब्रवीत् । व्यग्रोधोन्मूलनाद् व्याधिमसाध्यं केशवो व्रजेत् ॥६९५॥
कलङ्कसे रहित उक्त जिनराजसे धर्मका स्वरूप पूछा।। ६७८-६८०॥ भव्य जीवोंका अनुग्रह करना ही जिनका मुख्य कार्य है ऐसे शिवगुप्त जिनराज भी अपने वचन-समूह रूपी उत्तम चन्द्रिकासे उस सभाको आह्लादित करते हुए कहने लगे ॥ ६८१॥ कि इस संसारमें जीवादिक नौ पदार्थ हैं उनका प्रमाण नय निक्षेप तथा निर्देश आदि अनुयोगोंसे जो कि ज्ञान प्राप्तिके कारण हैं बोध होता है । गौण और मुख्य नयोंके स्वीकार करने रूप बलके मिल जानेसे 'स्यादस्ति', 'स्यान्नास्ति' आदि भङ्गों द्वारा प्रतिपादित धर्मोंसे वे जीवादि पदार्थ सदा युक्त रहते हैं। इनके सिवाय शिवगुप्त जिनराजने प्राप्त भगवान्का स्वरूप, मार्गणा, गुणस्थान, जीवसमास, संसारका स्वरूप, धर्मसे सम्बन्ध रखनेवाले अन्य युक्ति-युक्त पदार्थ, कर्मों के भेद, सुख-दुःखादि अनेक भेद रूप कर्माके फल, बन्ध और मोक्षका कारण, मुक्ति और मुक्त जीवका स्वरूप आदि विविध पदार्थोंका विवेचन भी किया। इस प्रकार उनसे धर्मका विशेष स्वरूप सुनकर रामचन्द्रजी आदि समस्त बुद्धिमान् पुरुषोंने श्रावकके व्रत ग्रहण किये ॥ ६८२-६८६॥ परन्तु भोगोंमें आसक्त रहनेवाले लक्ष्मणने निदान शल्य नामक दोषके कारण नरककी भयङ्कर आयुका बन्ध कर लिया था इसलिए उसने सम्यग्दर्शन आदि कुछ भी ग्रहण
किया।।६८७। इस प्रकार राम और लक्ष्मणने कुछ वषे तो अयोध्यामें ही सुखसे बिताये तदनन्तर वहाँका राज्य भरत और शत्रुघ्नके लिए देकर वे दोनों अपने परिवारके साथ बनारस चले गये और अपनी सम्पदासे इन्द्रकी लीलाको तिरस्कृत करते हुए नगरीमें प्रविष्ट हुए ।। ६८८-६८६ ।। रामचन्द्रके देवके समान विजयराम नामका पुत्र था और लक्ष्मणके चन्द्रमाके समान पृथिवीचन्द्र नामका पुत्र उत्पन्न हुआ था ।। ६६०॥ जिनका अभ्युदय प्रसिद्ध है और जो धर्म, अर्थ, काम रूप त्रिवर्गके फलसे सुशोभित हैं ऐसे रामचन्द्र और लक्ष्मण अन्य पुत्र-पौत्रादिकसे युक्त होकर सुखसे समय बिताते थे ॥ ६६१॥ किसी एक दिन लक्ष्मण नागवाहिनी शय्या पर सुखसे सोया हुआ था। वहाँ उसने तीन स्वप्न देखे-पहला मन्त हाथीके द्वारा वट वृक्षका उखाड़ा जाना, दूसरा राहुके द्वारा निगले हुए सूर्यका रसातलमें चला जाना और तीसरा चूनासे सफेद किये हुए ऊँचे राजभवनका एकदेश गिर जाना । इन स्वप्नोंको देखकर वह उठा, बड़े भाई रामचन्द्रजीके पास गया और विनयके साथ सब स्वप्नोंको जिस प्रकार देखा था उसी प्रकार निवेदन कर गया ॥ ६६२-६६४ ॥ पुरोहितने सुनते ही उनका फल इस प्रकार कहा कि, वट वृक्षके उखड़नेसे लक्ष्मण असाध्य बीमारीको प्राप्त होगा,
१ सुप्त्वा
ख.
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