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अष्टषष्टं पर्व
राहुग्रस्तार्कसम्पाताद् भाग्यभोगायुषां क्षयः । तुजप्रासादभङ्गेन त्वं प्रयाता तपोवनम् ॥ ६९६ ॥ इत्येकान्ते वचस्तस्य श्रुत्वा रामो यथार्थवित् । धीरोदातया नायान् मनागपि मनःक्षतिम् ॥६९७॥ लोकद्वयहितं मत्वा कारयामास २घोपणाम् । प्राणिनो नहि हन्तव्याः कैश्चिञ्चेति दयाद्यतः ॥६९८॥ चकार शान्तिपूजां च सर्वज्ञसवनावधिम् । ददौ दानं च दीनेभ्यो येन यद्यदभीप्सितम् ॥६९९॥ बभूव क्षीणपुण्यस्य ततः कतिपयैदिनैः । केशवस्य महाव्याधिरसातोदयचोदितः ॥ ७००॥ दःसाध्येनामयेनाऽसौ माघे मास्यसितेऽन्तिमे। दिने तेनागमच्चक्री पृथ्वी पङ्कप्रभाभिधाम् ॥७.१॥ तद्वियोगेन शोकाग्निसन्तप्तहृदयो वलः । कथं कथमपि ज्ञानात्सन्धार्यात्मानमात्मना ॥ ७.२॥ कृत्वा शरीरसंस्कारमनुजस्य यथाविधिः । सर्वान्तःपुरदुःखं च प्रशमय्य प्रसन्नवाक् ॥७.३॥ सर्वप्रकृतिसान्निध्ये पृथिवी सुन्दरीसुते । ज्येष्ठे राज्य विधायोच्चैः सपर्ट्स केशवात्मजे ॥७०४॥ अष्टौ विजयरामाद्याः सीतायाः सात्विकाः सुताः। लक्ष्मीमनभिवाब्च्छत्सु तेषां ज्येष्ठेषु सप्तसु ॥७.५॥ दत्वाजितायाख्याय यौवराज्यं कनीयसे । मिथिलामर्पयित्वास्मै त्रिनिर्वेदपरायणः ॥७०६॥ साकेतपुरमभ्येत्य वने सिद्धार्थनामनि । वृषभस्वामिनिष्क्रान्तितीर्थभूमौ महौजसः ॥७०७॥ शिवगुप्ताभिधानस्य समीपे केवलेशिनः । संसारमोक्षयोर्हेतुफले सम्यक प्रबुद्धवान् ॥७०८॥ निदानशल्यदोषेण चतुर्थी नारकी भुवम् । केशवः प्राप्त इत्येतद्बुध्वाऽस्मादेव" शुद्धधीः ॥७०९॥ निरस्ततद्गतस्नेहविधिराभिनिबोधिकात् । वेदात्प्रादुर्भवरोधिः सुग्रीवाणुमदादिभिः ॥१०॥
राहुके द्वारा ग्रस्त सूर्यके गिरनेसे उसके भाग्य, भोग और आयुका क्षय सूचित करता है तथा ऊँचे भवनके गिरनेसे आप तपोवनको जावेंगे ।। ६६५-६६६॥ पदार्थों के यथार्थ स्वरूपको जानने वाले रामचन्द्रजीने पुरोहितके यह वचन एकान्तमें सुने परन्तु धीर-बीर होनेके कारण मनमें कुछ भी भावको प्राप्त नहीं हुए। ६६७॥ तदनन्तर दयामें उद्यत रहनेवाले रामचन्द्रजीने दोनों लोकोंका हितकर मान कर यह घोषणा करा दी कि कोई भी मनुष्य किसी भी प्राणीकी हिंसा नहीं करे ॥ ६६८ ॥ इसके सिवाय उन्होंने सर्वज्ञ देवका स्नपन तथा शान्ति-पूजा की और दीनोंके लिए जिसने जो चाहा वह दान दिया ॥ ६६६ ॥ तदनन्तर जिसका पुण्य क्षीण हो गया है ऐसे लक्ष्मणको कुछ दिनोंके बाद असाता वेदनीय कर्मके उदयसे प्रेरित हुआ महारोग उत्पन्न हुआ।। ७०० ।। उसी असाध्य रोगके कारण चक्ररत्नका स्वामी लक्ष्मण मरकर माघ कृष्ण अमावस्याके दिन चौथी पङ्कप्रभा नामकी पृथिवीमें गया ॥ ७०१ ॥ लक्ष्मणके वियोगसे उत्पन्न हुई शोक-रूपी अग्निसे जिनका हृदय सन्तप्त हो रहा है ऐसे रामचन्द्रजीने ज्ञानके प्रभावसे किसी तरह अपने आप आत्माको सुस्थिर किया, छोटे भाई लक्ष्मणका विधि पूर्वक शरीर संस्कार किया और प्रसन्नतापूर्ण वचन कहकर समस्त अन्तःपुरका शोक शान्त किया ।। ७०२-७०३ ॥ फिर उन्होंने सब प्रजाके सामने पृथिवीसुन्दरी नामकी प्रधान रानीसे उत्पन्न हुए लक्ष्मणके बड़े पुत्रके लिए राज्य देकर अपने ही हाथसे उसका पट्ट बाँधा ॥७०४॥ सात्त्विक वृत्तिको धारण करनेवाले सीताके विजयराम आदिक आठ पुत्र थे। उनमें से सात बड़े पुत्रोंने राज्यलक्ष्मी लेना स्वीकृत नहीं किया इसलिए उन्होंने अजितञ्जय नामके छोटे पुत्रके लिए युवराज पद देकर मिथिला देश समर्पण कर दिया और स्वयं संसार, शरीर तथा भोगोंसे विरक्त हो गये ।। ७०५-७०६ ॥ विरक्त होते ही वे अयोध्या नगरीके सिद्धार्थ नामक उस वनमें पहुँचे जो कि भगवान् वृषभदेवके दीक्षाकल्याणकका स्थान होनेसे तीर्थस्थान हो गया था। वहाँ जाकर उन्होंने महाप्रतापी शिवगुप्त नामके केवलीके समीप संसार और मोक्षके कारण तथा फलको अच्छी तरह समझा ॥७०७-७०८ ।। जब उन्हें इन्हीं केवली भगवान्से इस बातका पता चला कि लक्ष्मण निदान नामक शल्यके दोषसे चौथे नरक गया है तब उनकी बुद्धि और भी अधिक निर्मल हो गई । तदनन्तर जिन्होंने लक्ष्मणका समस्त स्नेह छोड़ दिया है और आभिनिबोधिक-मतिज्ञानसे
१ योग्यभोगा-ल०। २ घोषणम् ग०, म०, ल०। ३ सुन्दरे सुते ल०। ४ परायणैः ल. ५ बुद्धा देवो विशुदधीः ल०।
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