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श्रष्टष्टं पर्व
दुरुक्तवचनानीव हृदिभेदीनि दूरनः । दिव्यापिमौवनादत्वात् कोपहुङ्कारवन्ति वा ॥ ५५४ ॥ कर्णाभ्यर्ण प्रवर्तित्वान्निगदन्तीव मन्त्रणम् । कृच्छ्रकृत्ये प्यभङ्गत्वात्सङ्गतानीव सज्जनैः ॥ ५५५ ॥ शरासनानि सन्धार्य निरगच्छन् धनुर्धराः । खड्गवर्मधरा 'धीरभट्टाश्च पटुरादिनः ॥ ५५६ ॥ धनान् सतडितः कृष्णान् गर्जिनो विजिगीषवः । नानाप्रहरणोपेता नानायुद्धविशारदाः ॥ ५५७ ॥ परे च परितः प्रापुर्योद्धुं परवलं भटाः । अतिद्रुताः खुराधातैर्दारयन्त इवावनिम् ॥ ५५८ ॥ सचामरा महीशा वा समहामणिपीठकाः । आमृतेरिष्टभृत्या वा स्वस्वामिहितकारिणः ॥ ५५९ ॥ भुआना इव समासा मधुरैः किङ्किणीरवैः । विजयं वा स्वसैन्यस्य घोषयन्तो निरन्तरम् ॥ ५६० ॥ सपक्षा इव सम्पन्नकङ्कटा गगनान्तरम् । लिलङ्घयिषवो लालाजलफेनप्रसूनकैः ॥ ५६१ ॥ स्वपादनटनृशार्थमर्चयन्तो धरामिव । हया यवनकाश्मीरवाहीकादिसमुद्भवाः ॥ ५६२ ॥ स्फुरदुरखातखड्गांशुविलसत्साद्यधिष्ठिताः । महासैन्याब्धिसम्भूततरङ्गाभा विनिर्गताः ॥ ५६३ ॥ द्विषो भीषयितुं वोचैर्हे पाघोपैविभूषणैः । स्वानुकूलानिलाः शस्त्रभाण्डाः प्रोद्दण्डकेतवः ॥ ५६४ ॥ संग्रामाम्भोनिधेः प्रोताः प्रचेलुः पृथवो रथाः । चक्रेणैकेन चेचक्री विक्रमी नस्तयोर्द्वयम् ॥ ५६५ ॥ मत्वेति श्रादुपेतुर्दिक्चक्राक्रमिणो रथाः । नायकाधिष्ठिता शस्त्रैः सम्पूर्णास्तूर्णवाजिनः ॥ ५६६ ॥
भाग हाथके अग्रभागके बराबर था, वे नये बादलों के समूहके समान जान पड़ते थे, बाण सहित थे, पुरुषों मनके समान गुण-- डोरी ( पक्षमें दया दाक्षिण्य आदि गुणों) से नम्र थे, कठोर वचनोंके समान दूरसे ही हृदयको भेदन करनेवाले थे, उनकी प्रत्यवाका शब्द दिशाओं में फैल रहा था अतः ऐसे जान पड़ते थे मानो क्रोध वश हुङ्कार ही कर रहे हों, खिंचकर कानोंके समीप तक पहुँचे हुए थे इसलिए ऐसे जान पड़ते थे मानो कुछ मन्त्र ही कर रहे हों, और सज्जनोंकी संगतिके समान
कठिन कार्य करते हुए भी कभी भग्न नहीं होते थे ऐसे धनुषोंको धारण कर धनुर्धारी लोग बाहर निकले । कुछ धीर वीर योद्धा तलवार और कवच धारण कर जोर-जोर से चिल्ला रहे थे जिससे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो बिजली सहित गरजते हुए काले मेघोंको ही जीतना चाहते । इनके सिवाय नाना प्रकार के हथियारोंसे सहित नाना प्रकार युद्ध करनेमें चतुर अन्य अनेक योद्धा भी चारों ओरसे शत्रुओं की सेनाके साथ युद्ध करनेके लिए आ पहुँचे । उनके साथ जो घोड़े थे वे बड़े वेग से चल रहे थे और खुरोंके आघातसे मानो पृथिवीको बिदार रहे थे ।। ५५३-५५८ ।। वे घोड़े चमरोंसे सहित थे तथा महामणियोंसे बनी हुई पीठ (काठी) से युक्त थे अतः राजाके समान जान पड़ते थे । अथवा किसी इष्ट-विश्वासपात्र सेवकके समान मरण-पर्यन्त अपने स्वामीका हित करनेवाले थे ॥५५६ ॥ उनके मुखमें घासके ग्रास लग रहे थे जिससे भोजन करते हुएसे जान पड़ते थे और छोटी-छोटी घंटियोंके मनोहर शब्दों से ऐसे मालूम हो रहे थे मानो निरन्तर अपनी जीत की घोषणा ही कर रहे हों ।। ५६० ।। वे घोड़े कवच पहने हुए थे इसलिए ऐसे जान पड़ते थे मानो पंखोंसे युक्त होकर आकाशके मध्यभागको ही लाँघना चाहते हों। उनके मुखोंसे लार रूपी जलका फेन निकल रहा था जिससे ऐसे जान पड़ते थे मानो अपने पैररूपी नटोंके नृत्य करनेके लिए फूलोंसे पृथिवीकी पूजा ही कर रहे हों। वे घोड़े यूनान, काश्मीर और वाल्हीक आदि देशों में उत्पन्न हुए थे, उन पर ऊँची उठाई हुई देदीप्यमान तलवारोंकी किरणोंसे सुशोभित घुड़सवार बैठे हुए थे, वे महासेना रूपी समुद्र में उत्पन्न हुई तरंगोंके समान इधर-उधर चल रहे थे, और जोर-जोरसे हींसनेके शब्द रूपी आभूषणोंसे शत्रुओं को भयभीत करनेके लिए ही मानो निकले हुए थे। इनके सिवाय वायु जिनके अनुकूल चल रही है जिसमें शस्त्र रूपी वर्तन भरे हुए हैं, जिनपर ऊँचे दण्ड वाली पताकाएँ फहरा रही हैं, और संग्राम रूपी समुद्रके जहाज के समान जान पड़ते हैं ऐसे बड़े-बड़े रथ भी वहाँ चल रहे ये । चक्रवर्ती रावण यदि एक चक्रसे पराक्रमी है तो हमारे पास ऐसे दो चक्र विद्यमान हैं ऐसा समझ कर समस्त दिशाओंमें आक्रमण करनेवाले रथ वहाँ बड़ी तेजीसे आ रहे थे। जिनके भीतर
१ धीरमटाश्च घ० । २ नानाप्रहारणोपेता ल० । ३ लोला ल० ।
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