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महापुराणे उत्तरपुराणम् इन्द्रवर्माभिधानेन कुमुदो युद्धविश्रुतः । खर दूषणनानापि नीलो मायाविशारदः ॥ ६२१ ॥ एवमन्येऽपि तैरन्ये रामभृत्या रणोद्धताः । दशास्यनायकैः साई मायायुद्धमकुर्वत ॥ ६२२॥ तदा रामेण संग्रामे परिभूतं२ दशाननम् । अवलोक्येन्द्रजिन्मध्यं प्राविशद्वास्य जीवितम् ॥ ६२३॥ तं शक्त्यापातयद्रामस्तं निरीक्ष्य खगाधिपः । कुपित्वाऽधावदुद्दिश्य सशस्त्रं लक्ष्मणाग्रजम् ॥ ६२४ ॥ तन्मध्ये लक्ष्मणस्तूर्णमभूतं दशकन्धरः । मायागज समारुह्य व्यधान्नाराचपअरे ॥ ६२५ ॥ "महारावरणेनापि प्रतापी गरुडध्वजः । सिंहपोत इव दृप्तो दुनिवारोऽरिवारणैः ॥६२६॥ तत्पञ्जरं विभिद्यासी निर्ययो निजविद्यया । दृष्टा तद्रावणः क्रद्ध्वा प्रतीतं चक्रमादिशत् ॥ ६२७ ॥ सिंहनादं तदा कुर्वन् गगने नारदादयः । बाहौ प्रदक्षिणीकृत्य दक्षिणे स्वस्य तिष्टता ॥ ६२८ ॥ चक्रेण विक्रमेणेव मूर्तीभूतेन चक्रिणा । तेन तेन शिरोऽग्राहि त्रिखण्डं वा खगेशितुः ॥ ६२९ ॥ सोऽपि प्रागेव बहायुर्दुराचारादधोगतिम् । प्रापदापत्करी घोरां पापिनां का परागतिः ॥ ६३०॥ विजयाजं समापूर्य केशवो विश्वविद्विषाम् । अभयं घोषयामास स धर्मो जितभूभुजाम् ॥ ६३१ ॥ 'तदावशिष्टपौलस्त्यमहामानादयोऽलिवत् । मलिना बलचक्रेशपादपङ्कनमाश्रयन् ॥ ६३२ ॥ मन्दोदर्यादितद्देवीदुःखनोदनपूर्वकम् । विभीषणाय लकैश्यपबन्धं विधाय तौ ॥ ६३३ ॥
दशकण्ठान्वयायातविश्वभुक्तिं वितरतुः । 'अभूतां च त्रिखण्डेशौ प्रचण्डौ बलकेशवौ ॥ ६३४ ॥ साथ अङ्गद, इन्द्रवर्माके साथ युद्धमें प्रसिद्ध कुमुद और खर-दूषगके साथ माया करनेमें चतुर नील युद्ध कर रहे थे। इसी प्रकार युद्ध करने में अत्यन्त उद्धत रामचन्द्रजीके अन्य भृत्य भी रावणके मुखिया लोगोंके साथ मायायुद्ध करने लगे।। ६१८-६२२ ॥ उस समय इन्द्रजीतने देखा कि रामचन्द्रजी युद्धमें रावणको दबाये जा रहे हैं-उसका तिरस्कार कर रहे हैं तब वह रावणके प्राणोंके समान वीचमें आ घुसा ॥ ६२३ ।। परन्तु रामचन्द्रजीने उसे शक्तिकी चोट से गिरा दिया। यह देख रावण कुपित होकर शस्त्रोंसे सुशोभित रामचन्द्रजीकी ओर दौड़ा ।। ६२४ ।। इसी बीचमें लक्ष्मण बड़ी शीघ्रतासे उन दोनांके बीच में आ गया और रावणने मायामयी हाथीपर सवार होकर उसे नाराच-पञ्जरमें घेर लिया। अर्थात् लगातार वाण वर्षा कर उसे ढंक लिया ।। ६२५ ।। परन्तु गरुड़की ध्वजा फहरानेवाला लक्ष्मण प्रहरणावरण नामकी विद्यासे बड़ा प्रतापी था। वह सिंहके बच्चे के समान दृत बना रहा और शत्रुरूपी हाथी उसे रोक नहीं सके ।। ६२६ ।। वह अपनी विद्याप्ते नाराच-पञ्जरको तोड़कर बाहर निकल आया। यह देख रावण बहुत कुपित हुआ और उसने क्रोधित होकर विश्वासपात्र चक्राने के लिए आदेश दिया ।। ६२७ ।। उसी समय नारद आदि आकारामें सिंहनाद करने लगे। वह चक्ररत्न मूतिधारी पराक्रमके समान प्रदक्षिणा देकर लक्ष्मणके दाहिने हाथ पर आकर ठहर गया। तदनन्तर चक्ररत्नको धारण करनेवाले लक्ष्मणने उसी चक्ररत्नसे तीन खण्डके समान रावणका शिर काटकर अपने आधीन कर लिया ।। ६२८-६२६ ।। रावण, अपने दुराचारके कारण पहले ही नरकायुका बन्ध कर चुका था। अतः, दुःख देनेवाली भयंकर (अधागति) नरक गतिको प्राप्त हुआ सो ठीक ही है। क्योंकि, पापी मनुष्योंकी और क्या गति हो सकती है ? ॥ ६३० ॥ तदनन्तर लक्ष्मगने विजय-शङ्क बजाकर समस्त शत्रुओंको अभयदानकी घोषणा की सो ठीक ही है। क्यांकि, राजाओंको जीतनेवाले विजयी राजाओंका यही धर्म है ।। ६३१ ।। उसी समय रावणके बचे हुए महामन्त्री आदिने भ्रमरोंके समान मलिन होकर रामचन्द्र तथा लक्ष्मणके चरण-कमलोंका आश्रय लिया ।। ६३२ ॥ रावणकी मन्दोदरी आदि जो देवियाँ दुःखसे रो रही थीं उनका दुःख दूर कर राम और लक्ष्मणने विभीषणको लंकाका राजा बनाया तथा रावणकी वंश-परम्परासे आई हुई समस्त विभूति उसे प्रदान कर दी। इस प्रकार दोनों भाई बलभद्र और नारायण होकर तीन खण्डके बलशाली स्वामी हुए ॥ ६३३-६३४॥
१ मायायुद्धं व्यकुर्वत, म०, ल०। २ परिभूतदशाननम् ख०। ३ शक्याघातयद्राम ल०। ४ प्रहारारावणेनाशु क०, ख०, घ०; प्रहारे रावणेनाशु ग०। ५ विजयशङ्खम् । ६ सदावशिष्ट ल०। ७ लङ्कश्यपदवन्धं घ. ८ श्राभूतां ल ।
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