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अष्पष्टं प
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अथ शीलवती सीतामशोकवनमध्यगाम् । संग्रामविजयाकर्णनोदीर्णप्रमदान्विताम् ॥ ६३५ ॥ रावणानुजसुग्रीवपवमानात्मजादयः । गत्वा यथोचितं दृष्ट्वा ज्ञापयित्वा जयोत्सवम् ६३६ ॥ समयुञ्जत रामेण समं लक्ष्मीमिवापराम् । महामणिं वा हारेण कुशलाः कवयोऽथवा ॥ ६३७ ॥ वाचं मनोहरार्थेन सन्तो धर्मेण वा धियम् । 'सत्यमित्रसम्बन्धाद्भवन्तीप्सितसिद्धयः ॥ ६३८ ॥ वहन्ती जानकी दुःखमा प्राणप्रियदर्शनात् । रामोऽपि तद्वियोगोत्थशोकन्याकुलिताशयः ॥ ६३९ ॥ तौ परस्परसन्दर्शात्परां प्रीतिमवापतुः । तृतीयप्रकृतिं प्राप्य नृपो वा सापि वा नृपम् ॥ ६४० ॥ आरभ्य विरहाद्वत्तं यद्यत्तरादपृच्छताम् । अन्योन्यसुखदुःखानि निवेद्य सुखिनः प्रियाः ॥ ६४१ ॥ कृतदोषो हतः सीता निर्दोषेति निरूप्य ताम् । स्व्यकरोद्राघवः सन्तो विचारानुचराः सदा ॥ ६४२ ॥ ततोऽरिखेपुरोऽगच्छत्स्फुरत्पीठगिरौ स्थितः । अत्रैवाभिषवं प्राप्य सर्वतीर्थाम्बुसम्भृतैः ॥ ६४३॥ अष्टोत्तरसहस्रोरुसुवर्णकलशैर्मुदा । देवविद्याधराधीशैः स्वहस्तेन समुद्धतैः ॥ ६४४ ॥ कोटिकाख्यशिलां तस्मिनुज हे राघवानुजः । तन्माहात्म्यप्रतुष्टः सन् सिंहनादं व्यधाद्वलः ॥ ६४५ ॥ निवासी सुनन्दाख्यो यक्षः सम्पूज्य तौ मुदा । असिं सौनन्दकं नाना समानं चक्रिणोऽदित ॥ ६४६ ॥ अनुगङ्गं ततो गत्वा गङ्गाद्वारसमीपगे । वने निवेश्य शिविरं रथमारुह्य चक्रभृत् ॥ ६४७ ॥ गोपुरेण प्रविश्याधि निजनामाङ्कितं शरम् । मागधावासमुद्दिश्य व्यमुञ्चत् कुञ्चितक्रमः ॥ ६४८ ॥ मागधोऽपि शरं वीक्ष्य मत्वा स्वं स्वल्पपुण्यकम् । अभिष्टुवन् महापुण्यश्चक्रवर्तीति लक्ष्मणम् ॥ ६४९ ॥
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तदनन्तर जो अशोक वनके मध्यमें बैठी है, और संग्राममें रामचन्द्रजीकी विजयके समाचार सुनने से प्रकट हुए हर्षसे युक्त है ऐसी शीलवती सीताके पास जाकर विभीषण, सुग्रीव तथा अणुमान् दिने उसके यथा योग्य दर्शन किये और विजयोत्सवकी खबर सुनाई ।। ६३५-६३६ ।। तत्पश्चात् जिस प्रकार कुशल कारीगर महामणिको हारके साथ, अथवा कुशल कवि शब्दको मनोहर अर्थके साथ अथवा सज्जन पुरुष अपनी बुद्धिको धर्मके साथ मिलाते हैं उसी प्रकार उन विभीषण
दिने दूसरी लक्ष्मीके समान सीताजीको रामचन्द्रजीके साथ मिलाया । सो ठीक ही है क्योंकि उत्तम भृत्य और मित्रों के सम्बन्धसे इष्ट-सिद्धियाँ हो ही जाती हैं ।। ६३७-६३८ ।। उधर जब तक रामचन्द्रजीका दर्शन नहीं हो गया था तब तक सीता दुःखको धारण कर रही थी और इधर रामचन्द्रजीका हृदय भी सीताके वियोगसे उत्पन्न होनेवाले शोकसे व्याकुल हो रहा था । परन्तु उस समय परस्पर एक-दूसरेके दर्शन कर दोनों ही परम प्रीतिको प्राप्त हुए। रामचन्द्रजी तृतीय प्रकृतिवाली शान्त स्वभाववाली सीताको और सीता शान्त स्वभाववाले राजा रामचन्द्रजीको पाकर बहुत प्रसन्न हुए ।। ६३६-६४० ॥ विरहसे लेकर अब तकके जो-जो वृत्तान्त थे वे सब दोनोंने एक-दूसरेसे पूछे सो ठीक ही है क्योंकि स्त्री-पुरुष परस्पर एक-दूसरे को अपना सुख-दुःख बतलाकर ही सुखी होते हैं । ६४१ ।। 'जिसने दोष किया था ऐसा रावण मारा गया, रही सीता, सो यह निर्दोष है' ऐसा विचार कर रामचन्द्रजीने उसे स्वीकृत कर लिया। सो ठीक ही है क्योंकि सज्जन हमेशा विचारके अनुसार ही काम करते हैं ॥ ६४२ ॥ तदनन्तर - दोनों भाई लंकापुरीसे निकलकर अतिशयसुन्दरपीठ नामके पर्वत पर ठहरे वहाँ पर देव और विद्याधरोंके राजाओंने अपने हाथसे उठाते हुए सुवर्णके एक हजार आठ बड़े-बड़े कलशोंके द्वारा दोनोंका बड़े हर्षसे अभिषेक किया। वहीं पर लक्ष्मणने कोटि-शिला उठाई और उसके माहात्म्यसे सन्तुष्ट हुए रामचन्द्रजीने सिंहनाद किया ।। ६४३-६४५ ।। वहाँ के रहनेवाले सुनन्द नामके यक्षने उन दोनोंकी बड़े हर्षसे पूजा की और लक्ष्मण के लिए बड़े सन्मानसे सौनन्दक नामकी तलवार दी ।। ६४६ ॥ तदनन्तर दोनों भाइयोंने गङ्गा नदी के किनारे-किनारे जाकर गङ्गाद्वारके समीप ही वनमें सेना ठहरा दी । लक्ष्मणने रथपर सवार हो गोपुर द्वारसे समुद्र में प्रवेश किया और पैरको कुछ टेढ़ाकर मागध देवके निवास स्थानकी ओर अपने नामसे चिह्नित वाण छोड़ा || ६४७-६४८ ॥ मागध देवने भी बाण देखकर अपने आपको
१ सद्भृत्यामित्र - घ० । २-मप्राण-ल० ।
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