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अष्टषष्टं पर्व
३२१ इतस्ततो भटा भ्यस्ताः सारे जर्जराङ्गकाः। जनयन्स्यन्तकस्यापि १वाक्षमाणस्थ भारसम् ॥ ६०७ ॥ बाजिनोऽत्र समुच्छिन्नचरणाः सत्वशालिनः । अङ्गेनैव समुत्थातुमुथन्ति स्मोजिंतौजसः ॥ ६०८ ॥ २अभानिभा भटोन्मुक्तशरनाराचकीलिताः । प्रक्षरद्धातुनिष्यन्दगिरयो बाल्यवेणवः ॥६०९ ॥ चक्राद्यवयवैर्भग्नविक्षिप्ता सर्वतो रथाः । भान्ति स्म भिन्नपोता वा तत्संग्रामाब्धिमध्यगाः ॥ ६१०॥ दिनान्येवं बहन्यासीत् संग्रामो बलयोर्द्वयोः । प्रायेण विमुखे दैवे स्वं बलं वीक्ष्यभङ्गरम् ॥ ६११॥ सन्तप्तो मायया सीताशिरश्छेदं दशाननः । विधाय तव देवीयं गृहाणेति रुपाक्षिपत् ॥ ६१२ ॥ शिरस्तत्पश्यतो भहिँदि मोहे कृतास्पदे । खेचरेश्वरसैन्यस्य समीक्ष्य समरोत्सवम् ॥ ६१३॥ सीतां शीलवतीं कश्चिदपि स्प्रष्टुं त्वया विना । शक्तो नास्ति दशास्यस्य मायेयं मात्रगाः शुचम् ॥६१४॥ नाथेति राघवं तथ्यमब्रवीद्रावणानुजः । विभीषणस्य तद्वाक्यं श्रद्धाय रघुनन्दनः ॥ १५ ॥ गजारिगंजयूथं वा भास्करो वा तमस्ततिम् । बलं विभेदयामास सद्यो विद्याधरेशिनः ॥ ६१६ ॥ प्रकाशयुद्धमुज्झित्वा मायायुद्धविधित्सया। स पुत्रैः सह पौलस्त्यो लहते स्म नभोऽङ्गणम् ॥ ६१७ ॥ तं वीक्ष्य तद्रणे दक्षौ दुरीक्ष्य रामलक्ष्मणौ । गजारिविनतासूनु वाहिनीभ्यां समुद्यतौ ॥ ६१८ ॥ सुग्रीवाणुमदाद्यात्मविद्याधरबलान्वितौ। रावणेन समं रामो लक्ष्मणोप्यग्रसूनुना ॥ ६१९ ॥ सुग्रीवः कुम्भकर्णेन मरुत्तुनविकीर्तिना । खरेण केतुरन्जादिरङ्गदश्वेन्द्रकेतुना ॥ ६२० ॥
खाते समय तो सबको खा गया परन्तु वह खाये हुए समस्त लोगोंको पचानेमें समर्थ नहीं हो सका, इसलिए ही मानो उसने उन्हें उगल दिया था। ६०६॥ जिनके अङ्ग जर्जर हो रहे हैं ऐसे कितने ही योद्धा उस युद्धस्थलमें जहाँ-तहाँ बिखरे पड़े हुए थे और वे देखनेवाले यमराजको भी भयानक रस उत्पन्न कर रहे थे-उन्हें देख यमराज भी भयभीत हो रहा था ॥ ६०७ ।। जिनके पैर कट गये हैं ऐसे कितने ही प्रतापी एवं बलशाली घोड़े अपने शरीरसे ही उठनेका प्रयत्न कर रहे थे । ६०८ ।। योद्धाओंके द्वारा छोड़े हुए बाणों और नाराचोंसे कीलित हाथी ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो जिनसे गेरूके निर्भर भर रहे हैं और जिनपर छोटे-छोटे बाँस लगे हुए हैं ऐसे पर्वत ही हों ।। ६०६ ।। चक्र आदि अवयवोंके टूट जानेसे सब ओर बिखरे पड़े रथ ऐसे जान पड़ते थे मानो उस संग्राम रूपी समुद्रके बीचमें चलनेवाले जहाज ही टूटकर बिखर गये हों ।। ६१० ।। इस प्रकार उन दोनों सेनाओंमें बहुत दिन तक युद्ध होता रहा। एक दिन रावण भाग्यके प्रतिकूल होनेसे अपनी सेनाको नष्ट होती देख बहुत दुःखी हुआ। उसी समय उसने मायासे सीताका शिर काट कर 'लो, यह तुम्हारी देवी है ग्रहण करो' यह कहते हुए क्रोधसे रामचन्द्रजीके सामने फेंक दिया ।। ६११-६१२ ।। इधर सीताका कटा हुआ शिर देखते ही रामचन्द्रजीके हृदयमें मोहने अपना स्थान जमाना शुरू किया और उधर रावणकी सेनामें युद्धका उत्सव होना शुरू हुआ। यह देख, विभीषणने रामचन्द्रजीसे सच बात कही कि शीलवती सीताको आपके सिवाय कोई दूसरा छूनेके लिए भी समर्थ नहीं है। हे नाथ, यह रावणकी माया है अतः आप इस विषयमें शोक न कीजिए। विभीषणकी इस बातपर विश्वास रख कर रामचन्द्रजी रावणकी सेनाको शीघ्र ही इस प्रकार नष्ट करने लगे जिस प्रकार कि सिंह हाथियोंके समूहको अथवा सूर्य अन्धकारके समूहको नष्ट करता है ॥ ६१३-६१६ ।। अब रावण खुला युद्ध छोड़कर माया-युद्ध करनेकी इच्छासे अपने पुत्रोंके साथ आकाश रूपी आँगनमें जा पहुँचा ।६१७॥ उस माया-युद्ध में रावणको दुरीक्ष्य (जो देखा न जा सके) देख कर, अत्यन्त चतुर राम और लक्ष्मण, सिंहवाहिनी तथा गरुड़वाहिनी विद्याओंके द्वारा अर्थात् इन विद्याओंके द्वारा निर्मितआकाशगामी सिंह और गरुड़ पर आरूढ़ होकर युद्ध करनेके लिए उद्यत हुए। सुप्रीव, अणुमान् आदि अपने पक्षके समस्त विद्याधरोंकी सेना भी उनके साथ थी। रावणके साथ रामचन्द्र, इन्द्रजीतके साथ लक्ष्मण, कुम्भकर्णके साथ सुग्रीव, रविकीर्तिके साथ अणुमान खरके साथ कमलकेतु, इन्द्रकेतुके
१ वीक्ष्यमाणस्य क०, ख०, ग०, म० । २ 'भान् इभाः' इति पदच्छेदः। अभान्-शोभन्ते स्म, इभा गजाः । ३ विनीताभ्यां ल०।
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