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अष, पर्व
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महाभये वा सम्प्राप्ते रणविन्नविधायिनी । पुरानजितपुण्ये वा समस्तनयनाप्रिये ॥ ५८० ॥ रजस्येवं नभोभागलडिन्याहितरहसि । मूर्छितं गर्भगं कुख्य लिखितं चातिशय्य तत् ॥ ५८१ ॥ बलं 'कलकलं किञ्चिद्विचेष्टमभवत्तदा। विध्वस्तवैरिभूपालचित्तक्षोभोपमे शनैः ॥ ५८२ ॥ पृथौ तस्मिन् रजःक्षोभे प्रशान्ते सति सक्रधः । प्रस्पष्टदृष्टिसञ्चाराः सेनानायकचोदिताः ॥ ५८३ ॥ गतिं प्रपातसंशुखा नवाब्दा वा धनुर्धराः। शरवृष्टि विमुञ्चन्तो हृदयानि विरोधिनाम् ॥ ५८४ ॥ कुर्वन्ति स्मापरागाणि सटानां रणाङ्गणे । युड्यन्ते स्माहवोत्साहातेऽपि तैरिव चोदिताः ॥ ५८५ ॥ द्विषतो वा न सस्वाभिव्यक्तिः स्यात्सुहृदः सताम् । मया मजीवितुं दातुं नृपाजीवितमाददे ॥ ५८६ ॥ तस्य कालोऽयमित्येको व्यतरचणं रणे । भृत्यकृत्यं यशः शूरगतिश्चात्र अयं फलम् ॥ ५८७ ॥ पुरुषार्थत्रयं चैतदेवेत्यन्योन्ययुध्यते । नास्मद्वले मृतिं वीक्षे कस्यापि स पराभवः ॥ ५८६ ॥ ममेति मन्यमानोऽन्यः प्राग्युध्वानियत स्वयम् । अयुध्यन्तैवमुल्क्रोधाः सर्वशौरनारतम् ॥ ५८९ ॥ सव्यापसव्यमुक्तार्धमुक्कामुक्तैरनाकुलम् । अभीतमार्गणेनैव मार्गणा मार्गमात्मनः ॥ ५९० ॥ मध्ये विधाय गत्वा द्राक् ४परत्र पतिताः परे । 'दूरं त्यक्त्वा गुणान्वाणैस्तीक्ष्णैः शोणितपायिभिः ॥५९१॥
ऋजुत्वाजहिरे प्राणान् गुणोऽपि न गुणः खले । न वैरं न फलं किञ्चित्तथाप्यन्नन् शराः परान् ॥ ५९२ ॥ हो । अथवा पूर्ण ज्ञानको नाश करनेका कारण मिथ्याज्ञान ही फैल रहा हो । ५७६ ॥ अथवा युद्ध में विन्न करनेवाला कोई बड़ा भारी भय ही आकर उपस्थित हुआ था। जिसने पूर्वभवमें पुण्य संचित नहीं किया ऐसा मनुष्य जिस प्रकार सबके नेत्रोंके लिए अप्रिय लगता है इसी प्रकार वह धूलि भी सबके नेत्रोंके लिए अप्रिय लग रही थी ।। ५८० । इस प्रकार वेगसे भरी धूलि आकाशको उल्लंघन कर रही थी अर्थात् समस्त आकाशमें फैल रही थी। उस धूलिके भीतर समस्त सेना ऐसी हो गई मानो मूच्छित हो गई हो अथवा गर्भमें स्थित हो, अथवा दीवाल पर लिखे हुए चित्रके समान निश्चेष्ट हो गई हो। उसका समस्त कलकल शान्त हो गया। जिस प्रकार किसी पराजित राजाके चित्तका क्षोभ धीरे-धीरे शान्त हो जाता है उसी प्रकार जब वह धूलिका बहुत भारी क्षोभ धीरे-धीरे शान्त हो गया और दृष्टिका कुछ-कुछ संचार होने लगा तब सेनापतियोंके द्वारा जिन्हें प्रेरणा दी गई है ऐसे क्रोधसे भरे योद्धा गमन करनेसे शुद्ध हुए नये बादलोंके समान धनुष धारण करते हुए बाणोंकी वर्षा करने लगे और युद्धके मैदानमें शत्रु-योद्धाओंके हृदय रागरहित करने लगे। सेनापतियोंके द्वारा प्रेरित हुए योद्धा बड़े उत्साहसे युद्ध कर रहे थे ॥ ५८१-५८५ ॥ सो ठीक ही है क्योंकि सज्जनों का बल शत्रुसे प्रकट नहीं होता किन्तु मित्रसे प्रकट होता है ।मैंने अपना जीवन देनेके लिए ही राजासे आजीविका पाई है-वेतन ग्रहण किया है। अब उसका समय आ गया है यह विचार कर कोई योद्धा रणमें वह ऋण चुका रहा था । युद्ध करने में एक तो सेवकका कर्तव्य पूरा होता है, दूसरे यश की प्राप्ति होती है और तीसरे शूर-वीरोंकी गति प्राप्त होती है ये तीन फल मिलते हैं ॥५८६५८७ ॥ तथा हम लोगोंके यही तीन पुरुषार्थ हैं यही सोचकर कोई योद्धा किसी दूसरे योद्धासे परस्पर लड़ रहा था। मैं अपनी सेनामें किसीका मरण नहीं देखूगा क्योंकि वह मेरा ही पराभव होगा' यह मानता हुआ कोई एक योद्धा स्वयं सबसे पहले युद्ध कर मर गया था। इस प्रकार तीव्र क्रोध करते हुए सब योद्धा, दायें-बायें दोनों हाथोंसे छोड़ने योग्य, आधे छोड़ने योग्य, और न छोड़ने योग्य सब तरहके शस्त्रोंसे विना किसी आकुलताके निरन्तर युद्ध कर रहे थे। दोनों ओरसे एक दुसरेके सन्मुख छोड़े जानेवाले बाण, बीचमें ही अपना मार्ग बनाकर बड़ी शीघ्रतासे एक दसरेकी सेनामें जाकर पड़ रहे थे। गुण अर्थात् धनुषकी डोरीको छोड़कर दूर जानेवाले, तीक्ष्ण एवं खून पीनेवाले बाण सीधे होनेपर भी प्राणोंका घात कर रहे थे सो ठीक ही है क्योंकि दुष्ट पुरुषमें रहनेवाले गुण, गुण नहीं कहलाते हैं। बाणोंका न तो किसीके साथ वैर था और न उन्हें कुछ फल ही मिलता था तो भी वे शत्रुओंका घात कर रहे थे ।।५८८-५६१॥ सो ठीक ही है क्योंकि
१ (कलकलं यथा स्यात् , क० टि० ) कालकलां कांचित् ख० । २ फलत्रयम् ख० । ३ अानीत-ल०, म०। ४ परं प्रपतिताः ल०।५ दूरे ख०।
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