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महापुराणे उत्तरपुराणम
सन्नद्धाः सन्तु नो युद्धे बद्धकक्षाः कथं रथाः । धावन्तु पत्तयो वाहा गजाश्चैभिः किमातुरैः ॥ ५६७ ॥ जयोऽस्मास्विति वा मन्दं समराः स्यन्दना ययुः | सन्मार्गगामिभिः शखधारिभिश्चक्रवर्तिभिः ॥ ५६८ ॥ रथैदिक्चक्रमाक्रम्य तैर्द्विचक्रं किमुच्यते । महीधरनिभैः पूर्वकायै रौदय्र्यधारिणः ॥ ५६९ ॥ पश्चात्मसारितामाङ्गली विलङ्घय स्वपेचकाः । अम्भोरुहाकरा बोयद्रक्तपुष्करशोभिनः ॥ ५७० ॥ परप्रणेयवृत्तित्वादर्भकानुविधाथिनः । रुषेवोत्थापयन्तोऽलीन् कर्णतालैः कटस्थितान् ॥ ५७१ ॥ सबलाका इवाम्भोदाः समुद्यद्धवलध्वजैः । केचित्परमदामोदमाघ्रायाम्भोदवर्त्मनि ॥ ५७२ ॥ करैः प्रविकसत्पुष्करैस्तैर्योद्धुं समुद्यताः । निशितोर्ध्वानुशाघातदलनिर्याण * वारिताः ॥ ५७३ ॥ मुहुर्विधूतमूर्द्धानः करेणुगणसन्निधौ । प्रशान्तीभूतसंरम्भा महामात्राद्यधिष्ठिताः ॥ ५७४ ॥ मातङ्गास्तुङ्गदेहत्वादाक्रामन्त इवाखिलम् । सर्वतो निर्ययुर्वोच्चैर्जङ्गमा धरणीधराः ॥ ५७५ || केतवश्चानुकूलानिलेरिता "विद्विषं प्रति । चेलुर्दण्डान् परित्यज्य पुरो योद्धुमिवोद्यताः ॥ ५७६ ॥ नभसः शुद्धरूपस्य मालं जलधराकृतिम् । अथवापनयन्तो वा संच्छादितरवित्विषः ।। ५७७ ॥ धृतदण्ड प्रवृतित्वाद् वयोतीतानुकारिणः । काले विमुक्तिमत्त्वाश्च मुनिमार्गानुसारिणः ॥ ५७८ ॥ बलावष्टम्भखिन्नावनीनिःश्वसितसन्निभे । मिथ्याज्ञान इवाशेषवोधविध्वंसकारणे ॥ ५७९ ॥
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स्वामी बैठे हुए हैं, जो अनेक शस्त्रोंसे परिपूर्ण हैं और जिनमें शीघ्रतासे चलनेवाले वेगगामी घोड़े जुते हुए हैं ऐसे तैयार खड़े हुए हमारे रथ युद्धके लिए वद्धकक्ष क्यों न हों ? पैदल चलनेवाले सिपाही, घोड़े और हाथी भले ही आगे दौड़ते चले जावें पर इन व्यम प्राणियोंसे क्या होनेवाला है ? विजय तो हम लोगोंपर ही निर्भर है । यह सोचकर ही मानो बोझसे भरे रथ धीरे-धीरे चल रहे थे । सन्मार्ग पर चलनेवाले, शस्त्रोंके धारक एक चक्रवाले चक्रवर्तियोंने जब समस्त दिशाओं पर आक्रमण किया था तब दो चक्रवाले रथोंने समस्त दिशाओं पर आक्रमण किया इसमें आश्चर्य ही क्या है ? इसी प्रकार पर्वत के समान जिनका अग्रभाग कुछ ऊँचा उठा हुआ था, पीछे की ओर फैली हुई पूँछसे जिनकी पूँछका उपान्त भाग कुछ खुल रहा था, जो ऊपरकी ओर उठते हुए सूँड़के लाल लाल अग्रभाग से सुशोभित थे और इसीलिए जो कमलोंके सरोवरके समान जान पड़ते थे। जिनकी वृत्ति परप्रणेय थी -- दूसरोंके आधीन थी अतः जो बच्चोंके समान जान पड़ते थे, जो अपने गण्डस्थलों पर स्थित भ्रमरोंको मानो क्रोधसे ही कान रूपी पंखोंकी फटकारसे उड़ा रहे थे। उड़ती हुई सफेद " ध्वजा से जो बगलाओंकी पंक्तियों सहित काले मेघोंके समान जान पड़ते थे, जिनमें कितने ही हाथी दूसरे हाथियों के मदकी सुगन्ध सूंघकर आकाशमें खिले हुए कमलके समान जिनका अग्रभाग बिकसित हो रहा है ऐसी सूँडोंसे युद्ध करनेके लिए तैयार हो रहे थे, जो पैनी नोकवाले अंकुशोंकी चोटसे अपाङ्ग प्रदेशमें घायल होनेके कारण युद्ध-क्रियासे रोके जा रहे थे, जो हथिनियोंके समूहके समीप बार-बार अपना मस्तक हिला रहे थे, जिनका सब क्रोध शान्त हो गया था, जिनपर प्रधान पुरुष बैठे हुए थे और जो उन्नत शरीर होनेके कारण समस्त संसार पर आक्रमण करते हुएसे जान पड़ते थे ऐसे चलते फिरते पर्वतोंके समान ऊँचे-ऊँचे हाथी सब ओरसे निकल कर चल रहे थे । ५६१५७५ ॥ उस समय अनुकूल पवनसे प्रेरित ध्वजाएँ शत्रुओंकी ओर ऐसी जा रही थीं मानो दण्डोंको छोड़कर पहले ही युद्ध करनेके लिए उद्यत हो रही हों ।। ५७६ ।। अथवा सूर्यकी किरणोंको ढकनेवाली वे ध्वजाएँ ऐसी जान पड़ती थीं मानो निर्मल श्राकाशमें जो मेधरूपी मैल छाया हुआ था उसे ही दूर कर रही हों ।। ५७७ ।। अथवा वे ध्वजाएँ दण्ड धारण कर रही थीं अर्थात् दण्डों में लगी हुई थीं इसलिए वृद्ध पुरुषोंका अनुकरण कर रही थीं अथवा समय पर मुक्त होती थीं-- खोलकर फहराई जाती थीं इसलिए मुनिमार्गका अनुसरण करती थीं ।। ५७८ ॥ उस समय धूलि उड़कर चारों ओर फैल गई थी और वह ऐसी जान पड़ती थी मानो सेनाके बोझसे खिन्न हुई पृथिवी साँस ही ले रही
१ 'उलूके करिणः पुज्जमूलोपान्ते च पेचकः' इत्यमरः । २ 'अपाङ्गदेशो निर्याणम्' इत्यमरः । ३ ' महामात्राः प्रधानानि' इत्यमरः । ४ विद्विषः ल० ।
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