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महापुराणे उत्तरपुराणम्
आग्रहं निग्रहं कृत्वा वनभङ्ग व्यधात् क्रधा। 'ऊर्वीकृतकरा घोरं क्रोशन्तो वनपालकाः॥ ५१०॥ प्राविशनगरी घोरा श्रावयन्तोऽश्रुतश्रुतिम् । तदा राक्षसविद्योचवजमालोपलक्षिताः ॥ ५॥ अभियाता पुरारक्षा योद्ध पवननन्दनम् । अथानिलसुतादिष्टवानरानीकनायकाः ॥ ५.२॥ तानभान् समुदत्य प्रहत्य वनपादपैः । ततः स्फुरन् महाज्वालविद्ययाऽसौ बहिः पुरम् ॥ ५॥३॥ निरधाक्षीदधिक्षिप्य रूक्षरक्षोबलं बली । एवं रावणदुर्वारप्रतापप्रोद्यतमम् ॥ ५११॥ प्रोन्मूल्य वानरानीकनायको राममाययो । सन्नाझ राधवः स्थिस्वा बलं संग्रामसम्मुखम् ॥ ५१५॥ नागतो रावणः केन हेतुनेति विभीषणम् । अप्राक्षीदथ सोप्याख्यलकायां नास्ति रावणः ॥ ५१६ ॥ बालिलोकान्तरापचि सुग्रीवाणुमतोरपि । विद्याबलावलेपित्वमवगम्य स्वयं च सः॥ ५१७॥ निवेश्य निजरक्षायां सुतमिन्द्रजिदाह्वयम् । अष्टोपवासमासाद्य सम्यनियमितेन्द्रियः ॥ ५१८॥ आदित्यपादशैलेन्द्र विद्याः संसाधयन् स्थितः । राक्षसादिमहाविद्यासिद्धावुपचितो भवेत् ॥ ५१९ । तद्विन्नपूर्वकं लङ्कामवष्टभ्य निवेशनम् । प्रयोजनमिति श्रद्दधन्तं सीतापतिं प्रति ॥ ५२०॥ नायकाभ्यां ततः सुग्रीवाणुमन्तौ स्वसाधिताः। दत्त्वा गरुडसिंहादिवाहन्यौ बन्धमोचनीम् ॥ ५२१॥ हननावरणीं विद्याश्चतस्रोऽस्य पृथक पृथक । प्रज्ञप्तिविद्याविकृतविमानेन महाबलम् ॥ ५२२ ॥ लङ्कापुरबहिर्भागे तनिवेशयतः स्म तौ । नभश्वरकुमारेषु तदा रामाज्ञया गिरिम् ॥ ५२३ ॥ सम्प्राप्य युद्धयमानेषु रावणस्याग्रसूनुना । सम्भूयेन्द्रजिता यूय युध्यध्वमिति संक्रुधा ॥ ५२४ ॥
अपने पराक्रमसे वन-पालकोंको पकड़ कर उनका निग्रह करने लगा और क्रोधसे उसने रावणक समस्त वन नष्ट कर डाला । तब वनके रक्षक लोग अपनी भुजाएँ ऊँची कर जोर-जोरसे चिल्लाते हुए नगरीमें गये और जो कभी नहीं सुने थे उन भयङ्कर शब्दोंको सुनाने लगे। उस समय राक्षस-विद्यावे प्रभावसे फहराती हुई ध्वजाओंके समूहसे उपलक्षित नगरके रक्षक लोग अणुमानसे युद्ध करनेके लिए उसके सामने आये । यह देख अणुमान्ने भी वानर-प्सेनाके सेनापतियोंको आज्ञा दी और तदनुसार वे सेनापति लोग क्नके वृक्ष उखाड़कर उन्हींसे प्रहार करते हुए उन्हें मारने लगे। तदनन्तर बलवान् अणुमान्ने नगरके बाहर स्थित राक्षसोंकी रूखी सेनाको अपनी देदीप्यमान महाज्वाल
वेद्यासे वहाँका वहीं भस्म कर दिया। इस प्रकार वानर सेनाका सेनापति अणुमान, रावण के दुर्वार प्रताप रूपी ऊँचे वृक्षको उखाड़ कर रामचन्द्र के समीप वापिस आ गया। इधर रामचन्द्र तबतक सेनाको तैयार कर युद्धके सन्मुख खड़े हो गये ।। ५०६-५१५ ।। उस समय उन्होंने विभीषण से पूछा कि रावण किस कारणसे नहीं आया है ? तदनन्तर विभीषणने उत्तर दिया कि इस समय रावण लङ्कामें नहीं है। बालिका परलोक गमन और सुग्रीव तथा अणुमानके विद्याबलका अभिमान सुनकर उसने अपनी रक्षाके लिए इन्द्रजित् नामक पुत्रको नियुक्त किया है तथा आठ दिनका उपवास लेकर और इन्द्रियोंको अच्छी तरह वश कर आदित्यपाद नामके पर्वत पर विद्याएँ सिद्ध करता हुआ बैठा है । राक्षसादि महाविद्याओंके सिद्ध हो जानेपर वह बहुत ही शक्तिसम्पन्न हो जावेगा। इसलिए इस समय हम लोगोंका यही काम है कि उसकी विद्यासिद्धिमें विघ्न किया जाय और लङ्काको घेरकर ठहरा जाय, इस प्रकार विभीषणने रामचन्द्रसे कहा। तदनन्तर सुग्रीव और अणुमान ने अपने द्वारा सिद्ध की हुई गरुड़वाहनी, सिंहवाहनी, बन्धमोचनी और हननावरणी नामकी चार विद्याएँ अलग-अलग रामचन्द्र और लक्ष्मणके लिए दी। इसके बाद दोनों भाइयोंने प्रज्ञप्ति नामकी विद्यासे बनाये हुए अनेक विमानोंके द्वारा अपनी उस बड़ी भारी सेनाको लङ्कानगरीके बाहर मैदानमें ले जाकर खड़ी कर दी। उसी समय कितने ही विद्याधर कुमार रामचन्द्रकी आज्ञासे आदित्यपाद नामक पर्वत पर जाकर उपद्रव करने लगे। तब रावणके बड़े पुत्र इन्द्रजितने क्रोधमें आकर विद्याधर राजाओं तथा पहले सिद्ध किये हुए समस्त देवताओंको यह आदेश देकर भेजा कि तुम सब लोग
नसे युद्ध करो। इन्द्रजित्की बात सुनकर विद्या-देवताओंने कहा कि हमलोगोंने आपके
१ ऋद्धीकृत-ल०।२ सुतादिष्टा ल।
तत्र न.
४-भवत् ब.।
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