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महापुराणे उत्तरपुराणम्
परामृशात्र किं युक्तं निषिद्ध विषयैषणम् । विद्धि वैद्याधरीं लक्ष्मीमिमां तव गुणप्रियाम् ॥ ४८१ ॥ अनर्पयन्तं सीतां त्वां त्यजत्यद्यैव निर्गुणम् । अकार्यकारिणामत्र गणनायां किमग्रिमम् ॥ ४८२ ॥ स्वं करोप्यभिलाषात्मकार्येण परयोषिति । प्रतिकूलोऽसि पुण्यस्य दुर्वृत्या पापसञ्चयात् ॥ ४८३ ॥ ततोऽननुगुणं देवं विना दैवात्कुतः श्रियः । परस्त्रीहरणं नाम पापं पापेषु दुस्तरम् ॥ ४८४ ॥ विस्तरेण किमुक्तेन नेष्यत्येनो महातमः । आस्तां तावददो भावि शापैः ४ शीलालयस्त्रियः ॥ ४८५ ॥ अलमामूलतो दग्धुं कुलं क्रोधविधायिनाम् । नानिच्छन्तीं प्रतीच्छामीत्येकमेव तव व्रतम् ॥ ४८६ ॥ पोतभूतं भवाब्धि "तचरितुं किं विनाशयेः । प्राणैरपि यशः क्रेयं सतां प्राणैश्च तेन च ॥ ४८७ ॥ पापं कल्पान्तरस्थायि क्रीणास्यज्ञोऽयशश्च धिक् । कस्येयं दुहिता सीता किं तन्न ज्ञायते त्वया ॥ ४८८ ॥ सुज्ञानमप्यविज्ञेयं कामन्यामुग्धमानसैः । अत्यौत्सुक्यमनाप्तेषु प्राप्तेषु परितोषणम् ॥ ४८९ ॥ 'भुज्यमानेषु वैरस्यं विषयेषु न वेत्सि किम् । अयोग्यायामनाथायां नाशहेतौ वृथा रतिम् ॥ ४९० ॥ मा कृथाः पापदुःखापलेपभाक् परयोषिति । आदेशः कीदृशः सोऽपि स्मार्यो वा भाविवेदिनाम् ॥ ४९१ ॥ चक्रस्य परिपाकं च प्रादुर्भूतं च भावय । बलानामष्टमं रामं लक्ष्मणं चार्द्धचक्रिणाम् ॥ ४९२ ॥ आमनन्ति पुराणज्ञाः प्राज्ञ तच्च विचिन्तय । यादृग्नार्पयतो दोषस्तादृगर्पयतस्तथा ॥ ४९३ ॥ सीतां नेति विनिश्चित्य तां रामाय समर्पय । इति लक्ष्मीलतावृद्धिसाधनं धर्मशर्मदम् ॥ ४९४ ॥
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का विनाश नहीं होगा ? जो विषय निषिद्ध नहीं है उनका भी त्याग करनेकी आपकी अवस्था है फिर जरा विचार तो कीजिये इस अवस्थामें निषिद्ध विषयकी इच्छा करना क्या आपके योग्य है ? आप यह निश्चित समझिये कि यह विद्याधरोंकी लक्ष्मी आपके गुणोंकी प्रिया है। यदि आप सीताको वापिस नही करेंगे तो निर्गुण समझ कर यह आपको आज ही छोड़ देगी। पर स्त्रीकी अभिलाषा करने रूप इस कार्य से आप अपने आपको अकार्य करनेवालों में अग्रणी - मुखिया क्यों बनाते हैं ? इस समय आप इस दुष्ट प्रवृत्ति से पापका संचय कर पुण्यके प्रतिकूल हो रहे हैं, पुण्यके प्रतिकूल रहने से दैव अनुकूल नहीं रहता और दैवके बिना लक्ष्मी कहाँ प्राप्त हो सकती है ? पर-स्त्रीका हरण करना यह पाप सब पापोंसे बड़ा पाप है ।। ४७६ - ४८४ ॥ अधिक विस्तार के साथ कहनेमें क्या लाभ है ? यह पाप आपको सातवें नरक ले जावेगा । अथवा इसे जाने दो, यह पाप पर भवमें दुःख देगा परन्तु शीलकी भाण्डारभूत स्त्रियाँ अपने प्रति क्रोध करनेवालोंके कुलको शापके द्वारा इसी भवमें आमूल नष्ट करनेके लिए समर्थ रहती हैं । आपने व्रत लिया था कि जो स्त्री मुझे नहीं चाहेगी मैं उसे नहीं चाहूंगा । आपका यह एक व्रत ही आपको संसाररूपी समुद्रसे पार करनेके लिए जहाजके समान इसे क्यों नष्ट कर रहे हो ? सज्जन पुरुषोंको प्राण देकर यश खरीदना चाहिए परन्तु आप ऐसे अज्ञानी हैं कि प्राण और यश देकर दूसरे कल्प काल तक टिकनेवाला पाप तथा अपयश खरीद रहे हैं अतः आपके लिए धिक्कार है । यह सीता किसकी पुत्री है यह क्या आप नहीं जानते ? ठीक ही है जिनका चित्त काम से मोहित रहता है उनके लिए जानी हुई बात भी नहीं जानीके समान होती है । क्या आप यह नहीं जानते कि ये पश्चेन्द्रियोंके विषय जबतक प्राप्त नहीं हो जाते तब तक इनमें उत्सुकता रहती है, प्राप्त हो जानेपर सन्तोष होने लगता है, और जब इनका उपभोग कर चुकते हैं तब नीरसता आ जाती है । इसलिए अयोग्य, अनाथ, विनाशका कारण, पाप और दुःखका सञ्चय करनेवाली परस्त्री में व्यर्थका प्रेम मत कीजिए । भविष्यत् की बात जाननेवाले निमित्तज्ञानियोंने कैसा आदेश दिया था - क्या कहा था इसका भी आपको स्मरण करना चाहिए ।। ४८५ - ४६१ । तथा चक्र उत्पन्नके फलका भी विचार कीजिए । पुराणोंके जाननेवाले रामको आठवाँ बलभद्र और लक्ष्मणको नौवाँ नारायण कहते हैं । हे विद्वन्! आप इसका भी विचार कीजिए । सीताको नहीं सौंपनेमें जैसा दोष है वैसा दोष उसके सौंपनेमें नहीं है ।। ४६२ - ४६३ || इसलिए इन सब बातोंका
१ गणनीयं ल० । २ अनुकूलम् । ३ नेष्यते तत्तमस्तमं ग०, घ० । ४ शापः शीलालयश्रियः ल० । ५ किं तत्तरीतुं ल०, म० । ६ भुञ्जमानेषु ल० । ७ भावि निवेदिनाम् ख० ।
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