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अष, पर्व
विभोर्मनाहेरोद्याने किष्किन्धे शरदागमे । बलं चतुर्दशाक्षौहिणीप्रमं भूभृतामभूत् ॥ ४६७ ॥ लक्ष्मणश्च जगत्पादगिरी निरशनस्तदा । ससाहं शिवघोपाख्यमोक्षस्थाने कृतार्चनः॥४६८॥ प्रशाप्ति साधयामास भटाष्टशतरक्षितः । सुग्रीवोऽपि महाविद्याः पूजयामास 'सुव्रतः ॥ ४६९ ॥ सोपवासो गिरौ सम्मेदाख्ये सिद्धशिलातले । तथान्येऽपि स्वविद्यानां खगाः पूजामकुर्वत ॥ ४७०॥ एवं भूखेचराधीशं बलं चलितकेतनम् । रामलक्ष्मणसुग्रीवमरुनन्दननायकम् ॥ ४७१ ॥ करीन्द्रमकराकीर्ण तुरङ्गमतरङ्गकम् । प्रलयाम्भोधिसङ्काशं लङ्का प्रति चचाल तत् ॥ ४७२ ॥ लङ्कापुरेऽप्यणुमतो विनिवृत्तौ दशाननः । कुम्भकर्णादिभिर्नास्मदुग्रवंशस्य भास्वतः॥ ४७३ ॥ कर्मेदमुचितं ख्यातपौरुषस्य तव प्रभो। स्त्रीरत्नमेतदुच्छिष्टं तदस्मदनुरोधतः ॥ ४७४ ॥ विसृज्यतामिति प्रोक्तोऽप्यासक्तस्त्यक्तुमक्षमः । भूयस्तृणमनुष्यस्य रामनाम्नो बलं किल ॥ ४७५ ॥ सीतां नेतुमतोऽस्माकमुपर्यागच्छतीति वाक । श्रयतेऽय कथं सीतामोक्षः कुलकलङ्ककृत् ॥ ४७६ ॥ इत्याख्यद्वचः सोढुमक्षमो रावणानुजः । सूर्यवंशस्य शौर्य किं रामस्तृणमनुष्यकः ॥ ४७७ ॥ न शृणोसि वचः पथ्यं बन्धूनां मदनान्धकः । परदारार्पणं दोर्ष वदन् दोषविदांवरः ॥४७८ ॥ परस्त्रीग्रहणं शौर्य त्वदुपझं भवेद् भुवि । मिथ्योचरेण किं मार्गविध्वन्सोन्मार्गवर्तनम् ॥ ४७९ ॥ दुर्द्धरं तव दुर्बुद्धलोकद्वयभयावहम् । विषयाननिषिद्धांश्च परित्यक्तं वयस्तव ॥ ४८.॥
रामचन्द्रको लक्ष्मण और सब सेनाके साथ-साथ बड़ी भक्तिसे अपने नगरमें ले आया और किष्किन्धा नगरके मनोहर उद्यानमें उन्हें ठहरा दिया। उस समय शरद्-ऋतु आ गई थी और रामचन्द्रके साथ राजाओंकी चौदह अक्षौहिणी प्रमाण सेना इकट्ठी हो गई थी।४६६-४६७ ।। जहाँसे शिवघोष मुनिने मोक्ष प्राप्त किया था ऐसे जगत्पाद नामक पर्वत पर जाकर लक्ष्मणने सात दिन तक निराहार रहकर पूजा की और प्रज्ञप्ति नामकी विद्या सिद्ध की। विद्या सिद्ध करते समय एक सौ आठ योद्धाओंने उसकी रक्षा की थी। इसी प्रकार सुग्रीवने भी उस समय उत्तम व्रत और उपवास धारण कर चल पर सिद्धशिलाके ऊपर महाविद्याओंकी पूजा की। इनके सिवाय अन्य विद्याधरोंने भी अपनी अपनी विद्याओंकी पूजा की। इस प्रकार जिसमें ध्वजाएँ फहरा रही हैं, राम, लक्ष्मण, सुग्रीव और अणुमान् जिसमें प्रधान हैं, जो बड़े बड़े हाथीरूपी मगरमच्छोंसे व्याप्त है, और घोड़े ही जिसमें बड़ी-बड़ी तरंगे हैं ऐसे प्रलयकालके समुद्र के समान वह भूमिगोचरी तथा विद्याधर राजाओंकी सेना लङ्काके लिए रवाना हुई ॥४६८-४७२ ॥
अथानन्तर-जब अणुमान लङ्कासे लौट आया था तब कुम्भकर्ण आदि भाइयोंने रावणसे कहा था कि 'हे प्रभो! आप हमारे उच्च वंशमें सूर्यके समान देदीप्यमान हैं और आपका पौरुष भी सर्वत्र प्रसिद्ध है अतः आपको यह कार्य करना उचित नहीं है। यह स्त्रीरत्न उच्छिष्ट है इसलिए हमलोगोंके अनुरोधसे आप इसे छोड़ दीजिए।' इस प्रकार सबने कहा परन्तु चूँ कि राव वण सीतामें आसक्त था इसलिए उसे छोड़ नहीं सका। वह फिर कहने लगा कि रामचन्द्र तृण-मनुष्य हैं-तृणके समान अत्यन्त तुच्छ हैं, 'उनकी सेना सीताको लेनेके लिए यहाँ हमारे ऊपर आ रही है। ऐसे शब्द आज सुनाई दे रहे हैं इसलिए सीताको कैप्से छोड़ा जा सकता है, यह बात तो कुलको कलङ्क लगाने वाली है ।। ४७३-४७६ ॥ रावणका छोटा भाई विभीषण उसकी यह बात सह नहीं सका अतः कहने लगा कि श्राप रामचन्द्रको तृणमनुष्य मानते हैं पर सूर्यवंशीय रामचन्द्रकी क्या शूर-वीरता है इसका आपको पता नहीं है। आप कामसे अन्धे हो रहे हैं इसलिए भाइयोंके हितकारी वचन नहीं सुन रहे हैं। आप परस्त्रीके समर्पण करनेको दोष बतला रहे हैं इसलिए मालूम होता है कि आप दोषोंके जानकारोंमें श्रेष्ठ हैं ? (व्यङ्गय ) ॥४७७-४७८ ॥ परस्त्रीग्रहण करना शूर-वीरता है, संसारमें इस बातका प्रारम्भ आपसे ही हो रहा है। आप जो अपनी दुर्बुद्धिसे मिथ्या उत्तर दे रहे हैं उससे क्या दोनों लोकोंमें भय उत्पन्न करनेवाले एवं दुर्धर उन्मार्गकी प्रवृत्ति नहीं होगीऔर सुमार्ग
१ सवतः घ०,ख०।२-वर्तिनम्
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