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त्रिषष्टितम पर्व
१६१ मनोवाक्कायसंशुद्धिं विदधद्विजितेन्द्रियः । कषायविषमस्वन्तमव'मोहं वमन् सुधीः ॥ २३३॥
भाद्यश्रेणी समारुह्य क्रमात्कर्माणि निर्ममः। निर्मूल्य निर्मलं भावमवापावगमस्य सः॥ २३४ ॥ तदा कैवल्यसम्प्राप्ति प्रभावात्कम्पितासनाः। निलिम्पाः सर्वसम्पत्त्या पत्युः पूजामकुर्वत ॥ २३५॥ स देवरमणोद्याने समं मेघरथोऽन्यदा । स्वदेवीभिविहृत्यास्थाञ्चन्द्रकान्तशिलातले ॥२३६॥ निविष्टं तं समाक्रम्य गच्छन्कश्चिनभश्चरः। गण्डोपल इव व्योम्नि सरुद्धसुविमानकः ॥२३७॥ शिला रुष्ट्रा५ नृपारूढामुत्थापयितुमुद्यतः । नृपाङ्गष्ठाग्रनिर्भुग्नशिलाभारप्रपीडितः ॥२३८॥ सत्सोढुमक्षमो गाढमाक्रन्दाकरुणस्वनम् । तदा तत्खचरी प्राप्य नाथानाथाऽस्मि नाथ्यसे ॥२३॥ पतिभिक्षां ददस्वेति 'प्राह प्रोत्थापितक्रमः। किमेतदिति भूनाथ संस्पृष्टः प्रिय मित्रया ॥२४॥ विजया लकाख्यशो विद्युइंष्ट्रखगाधिपः । प्राणेशाऽनिलवेगाऽस्य सुतः सिंहरथस्तयोः ॥२४॥ अभिवन्द्य जिनाधीशमायनमितवाहनः । ममोपरि विमाने स्वे रुद्ध नायाति केनचित् ॥२४२॥ 'दिशो विलोक्य मां दृष्ट्वा स्वदत् कोपवेपितः। ११अस्मान् शिलातलेनामा प्रोत्थापयितुमुद्यमी॥ पीडितोऽयं मदङ्गटेनैषाप्यस्य १३ मनोरमा । इत्यब्रवीत्तदाकर्ण्य किं कोपस्यास्य कारणम् ॥२४॥
।। २३२ ।। उन्होंने मन-वचन कायको शुद्ध बना लिया था, इन्द्रियोंको जीत लिया था, जिसका फल अच्छा नहीं ऐसे नीच कहे जानेवाले कषाय रूपी विषको उगल दिया था, उत्तम बुद्धि प्राप्त की थी, सब ममता छोड़ दी थी, क्षपकश्रेणीपर चढ़कर क्रम-क्रमसे सब कर्मोको उखाड़ कर दूर कर दिया था और केवलज्ञान प्राप्त करनेके योग्य निर्मल भाव प्राप्त किये थे ॥ २३३-२३४ ॥ उस समय भगवान्को केवलज्ञान प्राप्त होनेसे देवोंके आसन कम्पित हो गये। उन्होंने आकर सर्व वैभवके साथ उनकी पूजा की।। २३५ ॥
किसी एक समय राजा मेघरथ अपनी रानियोंके साथ विहारकर देवरमण नामक उद्यानमें चन्द्रकान्त मणिके शिलातलपर बैठ गया ।। २३६॥ उसी समय उसके ऊपरसे कोई विद्याधर जा रहा था। उसका विमान आकाशमें ऐसा रुक गया जैसा कि मानो किसी बड़ी चद्रानमें अटक गया हो ॥ २३७ ॥ विमान रुक जानेसे वह बहुत ही कुपित हुआ। राजा मेघरथ जिस शिलापर बैठे थे वह उसे उठानेके लिए उद्यत हुआ परन्तु राजा मेघरथने अपने पैरके अंगूठासे उस शिलाको दबा दिया जिससे वह शिलाके भारसे बहुत ही पीड़ित हुआ ।। २३८ ॥ जब वह शिलाका भार सहन करने में असमर्थ हो गया तब करुण शब्द करता हुआ चिल्लाने लगा। यह देख, उसकी स्त्री विद्याधरी आई और कहने लगी कि हे नाथ ! मैं अनाथ हुई जाती हूं, मैं याचना करती हूं, मुझे पति-भिक्षा दीजिये । ऐसी प्रार्थना की जानेपर मेघरथने अपना पैर ऊपर उठा लिया। यह सब देख प्रियमित्राने राजा मेघरथसे पूछा कि हे नाथ ! यह सब क्या है ? ।। २३६-२४०॥ यह सुन राजा मेघरथ कहने लगा कि विजयापर्वतपर अलका नगरीका राजा विद्यदंष्ट्र विद्याधर है । अनिलवेगा उसकी स्त्रीका नाम है । यह उन दोनोंका सिंहरथ नामका पुत्र है । यह जिनेन्द्र भगवान्की वन्दनाकर अमित नामक विमानमें बैठा हुआ पा रहा था कि इसका विमान किसी कारणसे मेरे ऊपर रुक गया, आगे नहीं जा सका। जब उसने सब दिशाओंकी ओर देखा तो मैं दिख पड़ा। मुझे देख अहंकारके कारण उनका शरीर क्रोधसे काँपने लगा। वह शिलातलके साथ हम सब लोगोंको उठानेके लिए उद्यम करने लगा। मैंने पैरका अँगूठा दबा दिया जिससे यह पीड़ित हो उठा। यह उसकी मनोरमा नामकी स्त्री है। राजा मेघरथने यह कहा । इसे सुनकर प्रियमित्रा रानीने फिर पूछा कि इसके इस क्रोधका
१ न विद्यते सुष्टु अन्तो यस्य तत् अस्वन्तम् । २ नीचैरिति निगाद्यमानम् । ३ क्षपश्रेणीम् । ४ प्राभवात् क०, ५०। ५ दृष्ट्वा ल०। ६ करुणस्वरम् ल०। ७ नाथसे घ०। नायसे ल० । ८ प्राहाथोत्थापित-ल० । ६ वाहनम् ल० । १० दिशां ल० । ११ अस्मिन् क०, ख०, घ० । १२ शिलातलेन श्रमा सह इति पदच्छेदः । १३ नैषोऽप्यस्य ल।
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