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महापुराणे उत्तरपुराणम भूपालो नाम संग्रामे वलिभिविजिगीषुभिः। 'प्राप्ताभिमानभाः सन् भृशं निविंय संसृतेः ॥ ५२ ॥ दीक्षा जैनेश्वरीमादास भूतगुरुसन्निधौ । कदाचित्स तपः कुर्वनिदानमकरोत्कुधीः ॥ ५३ ॥ भूयान्मे चक्रवतित्वमिति भोगानुषञ्जनात् । क्षीरं विषेण वा तेन मनसा दूषितं तपः ॥ ५४॥ स तथैवाचरन् घोरं तपः स्वास्यायुषः क्षये । समाधाय महाशुक्रे संन्यासेनोदपद्यत ॥ ५५ ॥ तत्र षोडशवाराशिमानायुः सुखमास्त । सः। द्वीपेऽस्मिन् भारते कौशलाख्ये राष्ट्र गुणान्विते ॥५६॥ सहस्रबाहुरिक्ष्वाकुः साकेतनगराधिपः । राज्ञी तस्याभवचित्रमत्याख्या हृदयप्रिया ॥ ५७ ॥ 'कन्याकुब्जमहीशस्य पारताख्यस्य सात्मजा । तस्यां सुतः सुपुण्येन कृतवीराधिपोऽभवत् ॥ ५८ ॥ तत्र प्रवर्द्धमानेऽस्मिन्निदमन्यद्दीयते । सहस्रभुजभूभतु: पितृव्याच्छतबिन्दुतः ॥ ५९॥ पारताख्य महीशस्य श्रीमत्यस्तनयः स्वसुः। जमदग्निः सरामान्तः कौमारे मातृमृत्युतः ॥ ६ ॥ “निर्वेगात्तापसो भूत्वा पञ्चाग्नितपसि स्थितः । दृढग्राहिमहीशस्य विप्रेण हरिशर्मणा ॥ ६ ॥ अभूदखण्डितं सख्यमेवं काले प्रयात्यसौ । दृढनाही तपो जैनमग्रहीद् ब्राह्मणोऽपि च ॥ १२॥ तापसनतमन्तेऽभूज्ज्योतिर्लोके द्विजोत्तमः । दृढग्राही च सौधर्मे सोऽवधिज्ञानचक्षुषा ॥ ६३॥ मिथ्यावाज्ज्योतिषां लोके समुत्पन्नं द्विजोत्तमम् । विज्ञाय जैनसद्धर्म तं प्राहयितुमागमत् ॥६५॥ दृष्ट्वा तं तत्र मिथ्यात्वात्वमेवं कुत्सितोऽभवः। उत्कृष्टं शुद्धसम्यक्त्वाद्देवभूयमहं गतः ॥ ६५॥
जन्ममें इसी भरतक्षेत्रमें भूपाल नामका राजा था ॥५१॥ किसी समय राजा भूपाल, युद्धमें विजयकी इच्छा रखनेवाले विजिगीषु राजाओंके द्वारा हार गया। मान भंग होनेके कारण वह संसारसे इतना विरक्त हुआ कि उसने संभूत नामक गुरुके समीप जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली। उस दुर्बुद्धिने तपश्चरण करते समय निदान कर लिया कि मेरे चक्रवर्तीपना प्रकट हो। उसने यह सब निदान भोगोंमें आसक्ति रखनेके कारण किया था। इस निदानसे उसने अपने तपको हृदयसे ऐसा दूषित बना लिया जैसा कि कोई विषसे दूधको दूषित बना लेताहै॥५२-५४॥ वह उसी तरह घोर तपश्चरण करता रहा। आयुके अन्तमें चित्तको स्थिरकर संन्याससे मरा जिससे महाशुक्र स्वर्गमें उत्पन्न हुआ ॥ ५५ ॥ वहाँ सोलह सागर प्रमाण आयुको धारण करनेवाला वह देव सुखसे निवास करने लगा। इधर इसी जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्रमें अनेक गुणोंसे सहित एक कोशल नामका देश है। उसके अयोध्या नगरमें इक्ष्वाकुवंशी राजा सहस्रबाहु राज्य करता था। हृदयको प्रिय लगनेवाली उसकी चित्रमती नामकी रानी थी। वह चित्रमती कन्याकुब्ज देशके राजा पारतकी पुत्री थी। उत्तम पुण्यके उदयसे उसके कृतवीराधिप नामका पुत्र हुआ॥५६-५८॥ जो दिन प्रतिदिन बढ़ने लगा। इसीसे सम्बन्ध रखनेवाली एक कथा और कही जाती है जो इस प्रकार है-राजा सहस्रबाहुके काका शतबिन्दुसे उनकी श्रीमती नामकी स्त्रीके जमदग्नि नामका पुत्र उत्पन्न हुआ था। श्रीमती राजा पारतकी बहिन थी। कुमार अवस्थामें ही जमदग्निकी माँ मर गई थी इसलिए विरक्त होकर वह तापस हो गया और पञ्चाग्नि तप तपने लगा। इसीसे सम्बन्ध रखनेवाली एक कथा और है। एक दृढ़ग्राही नामका राजा था। उसकी हरिशर्मा नामके ब्राह्मणके साथ अखण्ड मित्रता थी। इस प्रकार उन दोनोंका समय बीतता रहा। किसी एक दिन दृढ़ग्राही राजाने जैन तप धारण कर लिया और हरिशर्मा ब्राह्मणने भी तापसके व्रत ले लिये। हरिशर्मा ब्राह्मण आयुके अन्तमें मरकर ज्योतिर्लोकमें उत्पन्न हुआ-ज्यौतिषी देव हुआ और दृढ़ग्राही सौधर्म स्वर्गमें देव हुआ । उसने अवधिज्ञानरूपी नेत्रसे जाना कि हमारा मित्र हरिशर्मा ब्राह्मण मिथ्यात्वके कारण ज्योतिष लोकमें उत्पन्न हुआ है अतः वह उसे समीचीन जैनधर्म धारण करानेके लिए आया ॥५६-६४॥ हरिशर्माके जीवको देखकर दृढ़ग्राहीके जीवने कहा कि तुम मिथ्यात्वके कारण इस तरह निन्द्यपर्यायमें उत्पन्न हुए हो और
१. प्राप्तोऽ-ल०।२ स भूत-ल.। ३ सुधील ४ सुखमाप सःख०। ५ कौशल्याख्ये क०, घ०। ६कान्यकुब्ज ल०। ७ परताव्यस्य क., घ०। ८ निवेदात्तापसो म०, ल०। ६ द्योतिषां क०, ५०, ज्योतिषे ल.। १० उत्कृष्टशुद्ध ल.।
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