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अष्टषष्टं पर्व
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'कामिनांखण्डयन्मानं वियुक्तान् दण्डयन् भृशम्। संयुक्तान् पिण्डितान् कुर्वन् प्रचण्डःप्राविशजगत्॥५२॥ तदागमनमात्रेण सदनस्पतिजातयः । काश्चिदकरिताः काश्चित्सानुरागाः २सपल्लवैः ॥ ४३ ॥ काश्रित्कोरकिताः काश्चित्सहासाः कुसुमोत्करैः । स्वावध्यायातचित्तेशाः कान्ता इव निरन्तरम् ॥ ४४ ॥ हिमानीपटलोन्मुक्तं सुव्यक्तं चन्द्रमण्डलम् । ज्योत्स्ना प्रसारयामास दिक्षु लक्ष्मीविधायिनीम् ॥ ४५ ॥ सारमामोदमादाय विकिरन्पुष्पज रजः । सरोवारिकणैः सार्द्धमपाच्य पवनो ववौ ॥ ४६॥ तदान्याभिश्च रामस्य रामाभिः सप्तभिर्नृपः । प्रेक्ष्याभिर्लक्ष्मणस्यापि पृथिवीदेविकादिभिः॥ ४७ ॥ प्रीत्या षोडशमानाभिजिंनपूजापुरस्सरम् । तनूजाभिर्नरेन्द्राणां विवाहमकरोत्कृती ॥ ४८ ॥ ततः सर्वर्तुषु प्रेम्णा ताभिस्तो सुखमीयतुः । ताश्च ताभ्यामयो यस्माद्वाह्यहेतोः सुखप्रदः ॥ ४२ ॥ एवं स्वपुण्यपाका प्रसुखानुभवतत्परौ। तौ लब्ध्वावसरावित्थं कदाचित्प्रोचतुर्नुपम् ॥ ५० ॥ काशिदेशे क्रमायातमस्मत्पुरवरं पुरा । वाराणसी तदद्याभूदनधिष्ठितनायकम् ॥ ५१ ॥ आज्ञा यद्यस्ति देवस्य तदावामुदितोदितम् । विधास्याव इति श्रुत्वा नरेन्द्रस्तदुदीरितम् ॥ ५२ ॥ "वियोगमेतयोः सोदुमक्षमा भरतादयः। अस्मश्या महीनाथाः स्थित्वात्रैव पुरे पुरा ॥ ५३ ॥ षट्खण्डमण्डितां पृथ्वी बहवोऽपालयश्विरम् । एकदेशस्थयोरेव सूर्याचन्द्रमसोरिव ॥ ५४॥ विभासि भवतोस्तेजो व्याप्नोति महिमण्डलम् । ततः किं तत्प्रयाणेन मा यातमिति सोऽब्रवीत् ॥५५॥
-शिथिलाचारियोंके साथ विग्रह रखता है उस कामदेवके साथ वह वसन्त ऋतु अपना खास सम्बन्ध रखता था। वह वसन्त कामी मनुष्योंका मान खण्डित करता था, विरही मनुष्योंको अत्यन्त दण्ड देता था, और संयुक्त मनुष्योंको परस्परमें सम्बद्ध करता था। इस प्रचण्ड शक्तिवाले वसन्त ऋतुने संसारमें प्रवेश किया ॥४०-४२ ।। वसन्त ऋतुके आते ही बनमें जो उत्तम वनस्पतियोंकी जातियाँ थीं उनमेंसे कितनी ही अङ्कुरित हो उठीं और कितनी ही अपने पल्लवोंसे सानुराग हो गई, कितनी ही वनस्पतियों पर कलियाँ आ गई थीं, और कितनी ही वनस्पतियाँ, जिनके प्राणवल्लभ अपनी अवधिके भीतर आ गये हैं ऐसी स्त्रियों के समान फूलोंके समूहसे निरन्तर हँसने लगीं ॥४३-४४ ॥ उस समय चन्द्रमाका मण्डल बर्फके पटलसे उन्मुक्त होनेके कारण अत्यन्त स्पष्ट दिखाई देता था और सब दिशाओंमें शोभा बढ़ानेवाली अपनी चाँदनी फैला रहा था ।। ४५ ॥ दक्षिण दिशाका वायु श्रेष्ठ सुगन्धिको लेकर फूलोंसे उत्पन्न हुई परागको बिखेरता हुआ सरोवरके जलके कणों के साथ बह रहा था ॥ ४६ ।। उसी समय अतिशय कुशल राजा दशरथने श्रीजिनेन्द्रदेवकी पूजापूर्वक अन्य सात सुन्दर कन्याओंके साथ रामचन्द्रका तथा पृथिवी देवी आदि सोलह राजकन्याओंके साथ लक्ष्मणका विवाह किया था ।। ४७-४८ ।। तदनन्तर राम और लक्ष्मण दोनों भाई समस्त ऋतुओंमें उन स्त्रियोंके साथ प्रेमपूर्वक सुख प्राप्त करने लगे और वे स्त्रियाँ उन दोनोंके साथ प्रेमपूर्वक सुखका उपभोग करने लगी सो ठीक ही है क्योंकि पुण्य बाह्य हेतुओंसे ही सुखका देनेवाला होता है॥४६॥ इस प्रकार पुण्योदयसे श्रेष्ठ मुखका अनुभव करनेमें तत्पर रहनेवाले दोनों भाई किसी समय अवसर पाकर राजा दशरथसे इस प्रकार कहने लगे॥५०॥ कि काशीदेशमें वाराणसी (बनारस) नामका उत्तम नगर हमारे पूर्वजोंकी परम्परासे ही हमारे आधीन चल रहा है परन्तु वह इस समय स्वामि रहित हो रहा है। यदि आपकी आज्ञा हो तो हम दोनों उसे बढ़ते हुए वैभवसे युक्त कर दें। उनका कहा सुनकर राजा दशरथने कहा कि भरत आदि तुम दोनोंका वियोग सहन करने में असमर्थ हैं। पूर्वकालमें हमारे वंशज राजा इसी अयोध्या नगरीमें रहकर ही चिरकाल तक पृथिवीका पालन करते रहे हैं। जिस प्रकार सूर्य और चन्द्रमा यद्यपि एक स्थानमें रहते हैं तो भी उनका तेज सर्वत्र व्याप्त हो जाता है उसी प्रकार आप दोनोंका तेज एक स्थानमें स्थित होने पर भी समस्त पृथिवी-मण्डलमें
१ कामिता ल०।२ स्वपल्लवैः ख०। ३-मपाच्यः पवनो क०, ख०। ४ स्वपुण्यपाकाप्त-ख., ग० । स्वपुण्यपाका त-क० | ५ वियोगमक्षमः सोदुमेतयोभरतादयः म०, ल०।६ मागतामिति ख० मायातामिति क०, घ०।
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