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अष्टषष्टं पर्व
२७६
सुताममितवेगस्य विद्यासाधनतत्पराम् । लोलो मणिमतिं वीक्ष्य काममोहवशीकृतः॥१५॥ तां दुरात्माऽऽत्मसात्कतु तद्विद्यासिद्धिमभ्यहन् । सापि द्वादशवर्षोपवासक्लेशकृशीकृता ॥ १५॥ तसिद्धिविघ्नहेतुत्वात् कुपित्वा खेचरेशिने । पुत्रिकास्यैव भूत्वेमं वध्यासमिति दुर्मतिम् ॥ १६॥ कृत्वा भवान्ते मन्दोदरीगर्भ समधिष्ठिता । भूकम्पादिमहोत्पातैस्तजन्मसमयोद्भवैः ॥ १७ ॥ विनाशो रावणस्येति नैमितिकवचःश्रुतेः । दशाननोऽतिभीतः सन्यत्र वचन पापिनीम् ॥ १८॥ त्यजेमामिति मारीचमाज्ञापयदसावभी: । सोऽपि मन्दोदरीगेहं गत्वा देवस्य देवि मे ॥१९॥ कमै निघृणस्यासीदिति तस्यै न्यवेदयत् । सापि देवनिदेशस्य नाहमस्मि निवारिका ॥२०॥ इति प्रभूतद्रव्येण मञ्जूषायां निधाय ताम् । तत्सन्निधानपनेण' सहोक्त्वेदं च तं मुहुः ॥ २१ ॥ मारीच मानसे स्निग्धः प्रकृत्या बालिकामिमाम् । बाधाविरहिते देशे निक्षिपेति गलज्जले ॥२२॥ विमृज्य लोचने तस्मै स्वतनूजां समर्पयत् । स नीत्वा मिथिलोद्याननिकटप्रकटे वचित् ॥ २३ ॥ धरान्तःकृतमम्जूषो विषण्णो न्यवृतच्छुचा। तस्मिन्नेव दिने इष्ट्रा गेहनिर्मापणं प्रति ॥ २४ ॥ भूमिसंशोधने लागलामलग्नां नियोगिनः । मञ्जूषामेतदाश्चर्यमिति भूपमबोधयन् ॥ २५ ॥ सुरूपां बालिकां वीक्ष्य तदभ्यन्तरवर्तिनीम् । नृपस्तदवतारार्थ विलेखादवबुध्य सः ॥ २६ ॥ तत्पूर्वापरसम्बन्धमेषा सीताभिधानिका । सुता भवेत्रवेत्येतां वसुधायै ददौ मुदा ॥ २७ ॥
लिए किसी वनमें गया था। वहाँ विजया पर्वतके स्थालक नगरके राजा अमितवेगकी पुत्री मणिमती विद्या सिद्ध करनेमें तत्पर थी उसे देखकर चञ्चल रावण काम और मोहके वश हो गया। उस कन्याको अपने आधीन करनेके लिए उस दुष्टने मणिमतीकी विद्या हरण कर ली। वह कन्या उस विद्याकी सिद्धिके लिए बारह वर्षसे उपवासका क्लेश उठाती अत्यन्त दुर्बल हो गई थी। विद्याकी सिद्धिमें विघ्न होता देख वह विद्याधरोंके राजा पर बहुत कुपित हुई। कुपित होकर उसने निदान किया कि मैं इस राजाकी पुत्री होकर इस दुर्बुद्धिका वध अवश्य करूँगी॥ १०-१६॥ ऐसा निदान कर वह आयुके अन्तमें मन्दोदरीके गर्भमें उत्पन्न हुई। जब उसका जन्म हुआ तब भूकम्प आदि बड़े-बड़े उत्पात हुए उन्हें देख निमित्तज्ञानियोंने कहा कि इस पुत्रीसे रावणका विनाश होगा। यद्यपि रावण निर्भय था तो भी निमितज्ञानियोंके वचन सुनकर अत्यन्त भयभीत हो गया। उसने उसी क्षण मारीच नामक मन्त्रीको आज्ञा दी कि इस पापिनी पुत्रीको जहाँ कहीं जाकर छोड़ दो। मारीच भी रावणकी आज्ञा पाकर मन्दोदरीके घर गया और कहने लगा कि हे देवि, मैं बहुत ही निर्दय हूं अतः महाराजने मुझे ऐसा काम सौंपा है यह कह उसने मन्दोदरीके लिए रावणकी आज्ञा निवेदित की-सूचित की। मन्दोदरीने भी उत्तर दिया कि मैं महाराजकी आज्ञाका निवारण नहीं करती हैं।। १७-२०॥ यह कह कर उसने एक सन्दकचीमें बहुत-सा द्रव्य रखकर उस पत्रीको रक्खा . और मारीचसे बार-बार यह शब्द कहे कि हे मारीच ! तेरा हृदय स्वभावसे ही स्नेह पूर्ण है अतः इस बालिकाको ऐसे स्थानमें छोड़ना जहाँ किसी प्रकारकी बाधा न हो। ऐसा कह उसने जिनसे अश्र झर रहे हैं ऐसे दोनों नेत्र पोंछकर उसके लिए वह पुत्री सौंप दी। मारीचने ले जाकर वह सन्दकची मिथिलानगरीके उद्यानके निकट किसी प्रकट स्थानमें जमीनके भीतर रख दी और स्वयं शोकसे विषाद करता हुआ वह लौट गया। उसी दिन कुछ लोग घर बनवानेके लिए जमीन देख रहे थे, वे हल चलाकर उसकी नोंकसे वहाँकी भूमि ठीक कर रहे थे। उसी समय वह सन्दूकची हलके अग्रभागमें आ लगी। वहाँ जो अधिकारी कार्य कर रहे थे उन्होंने इसे आश्चर्य समझ राजा जनकके लिए इसकी सूचना दी ॥२१-२५॥ राजा जनकने उस सन्दूकचीके भीतर रखी हुई सुन्दर कन्या देखी और पत्रसे उसके जन्मका सब समाचार तथा पूर्वापर सम्बन्ध ज्ञात किया। तदनन्तर उसका सीता नाम रखकर 'यह तुम्हारी पुत्री होगी' यह कहते हुए उन्होंने बड़े हर्षसे वह पुत्री वसुधा रानीके
१-मभ्यहरन् ल० । २-दथान्धधीःख० । ३ विधाय ताम् ल०।४ पात्रेण क०, घ०। ५ मन्य मे स्निग्धः ख०, ग० । मान्य मे स्निग्ध म०। मान्यसे स्निग्ध ल०।६ समापयत् ल०।
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