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अष्टषष्ट पर्व
३०७
ममैव सर्वरत्नानि स्त्रीरत्न तु विशेषतः । प्रेषयत्विति किं वक्तं युक्त मां ते महीपतेः॥४१६॥ जित्वा मां विग्रहणाशु गृहीयाकेन वार्यते । इति तन्नाशसंसूचिवचन दैवचोदितम् ॥ ४१७ ॥ श्रुत्वा रामोदयापादिनिमित्तं शुभसूचकम् । इदमेवान नोऽभीष्टमिति चित्तेऽनिलात्मजः ॥ ४१८ ॥ व्याजहार दुरात्मानं दुश्चरित्रं दशाननम् । अन्यायस्य निषेद्धा त्वं निषेध्यश्चेन्निषेद्धरि ॥ ४१९ ॥ वाडवाग्निरिवाम्भोधौ केन वा स निषिध्यते । अभेद्यय'महं ख्यातो राघवः सिंहविक्रमः ॥ ४२ ॥
अकीर्तिनिष्फलाऽऽचन्द्रमिति स्मतुं तवोचितम् । मया बन्धुत्वसम्बन्धाराव पथ्यमुदाहृतम् ॥४२१॥ प्रभो गृहाण चेत्तभ्यं रोचते चेनमा गृहीः । इति दूतवचः श्रुत्वा पौलस्त्यः पुनरब्रवीत् ॥ ४२२॥ रत्नं ममानिवेद्येदं जनकेन समर्पितम् । दर्पाद्दाशरथौ तस्मादाहृतेयं मया रुषा ॥ ४२३॥ मद्योग्यवस्तुस्वीकारादकीर्तेश्चद्भवेन्मम । चक्ररत्नं च मद्धस्तादाददातु' स राघवः ॥ ४२४ ॥ इत्यन्वतोऽअनासूनुरवोचद्दशकन्धरम् । वचः प्रसनगम्भीरं तत्तदुक्त्यनुसारि यत् ॥४२५॥
रामचन्द्रने जो कहला भेजा है कि सीताको भेज दो सो क्या ऐसा कहना उसे योग्य है ॥ ४१५-४१६ ॥ [ वह अभिमानियोंमें बड़ा अभिमानी मालूम होता है। वह मेरी श्रेष्ठताको नहीं जानता है । 'मेरे चक्ररत्न उत्पन्न हुआ है। यह समाचार क्या उसके कानोके समीप तक नहीं पहुंचा है ? भूमिगोचरियों तथा विद्याधर राजाओंके मुकुटों पर मेरे चरण-युगल, स्थल-कमल-गुलाबके समान सुशोभित होते हैं यह बात आबाल-गोपाल प्रसिद्ध है-बड़ेसे लेकर छोटे तक सब जानते हैं। सीता मेरी है यह बात तो बहुत चौड़ी है किन्तु समस्त विजयाध पर्वत तक मेरा है। मेरे सिवाय सीता किसी अन्यकी नहीं हो सकती। तुम्हारा राजा जो इसे ग्रहण करना चाहता है वह पराक्रमी नहीं है-शूर-वीर नहीं है। इस सीताको अथवा अन्य किसी स्त्रीको ग्रहण करनेकी उसमें शक्ति है तो वह यहाँ आवे और युद्धके द्वारा मुझे जीत कर शीघ्र ही सीताको ले जावे । कौन मना करता है ? ] इस प्रकार भाग्यकी प्रेरणासे रावणके नाशको सूचित करनेवाले वचन सुनकर अणुमान्ने मनमें विचार किया कि इस समय रामचन्द्रके अभ्युदयको प्रकट करनेवाले शुभ सूचक निमित्त हो रहे हैं और इस विषयमें मुझे भी यही इष्ट है-मैं चाहता हूँ कि रामचन्द्र यहाँ आकर युद्धमें रावणको परास्त करें और अपना अभ्युदय बढ़ावें ॥४१७-४१८ ।। तदनन्तर वह अणुमान् रामचन्द्रकी ओरसे दुष्ट और दुराचारी रावणसे फिर कहने लगा कि 'श्राप अन्यायको रोकनेवाले हैं, यदि रोकनेवालेको ही रोकना पड़े तो समुद्र में बड़वानलके समान उसे कौन रोक सकता है ? यह सीता अभेद्य है-इसे कोई विचलित नहीं कर सकता और मैं सिंहके समान पराक्रमी प्रसिद्ध रामचन्द्र हूँ ॥ ४१६-४२० ।। इस अकार्यके करनेसे जब तक चन्द्रमा रहेगा तबतक आपकी निष्प्रयोजन अकीर्ति बनी रहेगी इस बातका भी आपको विचार करना उचित है।। मैंने भाईपनेके सम्बन्धसे आपके लिए हितकारी वचन कहे हैं। हे स्वामिन् ! यदि आपको रुचिकर हों तो ग्रहण कीजिए अन्यथा मत कीजिये।' इस प्रकार दूत-अणुमानको वचन सुनकर रावण फिर कहने लगा॥४२१-४२२ ॥ कि 'चूँकि राजा जनकने अहंकार वश मुझे सूचना दिये बिना ही यह सीता रूपी रत्न रामचन्द्रके लिए दिया था इसलिए क्रोधसे मैं इसे ले आया हूं ॥ ४२३ ।। मेरे योग्य वस्तु स्वीकार करनेसे यदि मेरी अकीर्ति होती है तो हो। वह रामचन्द्र तो मेरे हाथसे चक्ररत्न भी ग्रहण करना चाहता है। इस प्रकार रावणने कहा। तदनन्तर अणुमान् रावणके कहे अनुसार उससे प्रसन्न तथा गम्भीर वचन कहने लगा कि सीता मैंने हरी है यह आप क्यों कहते हैं ? यह सब जानते
[दपिंष्ठानामसौ प्रष्ठो ज्येष्ठतां मे न बुध्यते । चक्रोत्पत्तिन कि तस्य श्रवणोपान्तवर्तिनी। भूतभश्वरभूपालमौलिमालास्थलाम्बुजम् । मत्क्रमद्वन्द्वमित्येतदागोपालप्रसिद्धिमत् ॥ सीता ममेयमित्यल्पमेतदाखचराचलात । सीता नान्यस्य तो नासौ जिघृक्षुरिव विक्रमी । इमां च तांच यद्यस्ति शक्तिरत्रेत्य राघवः।] इत्ययं कोष्ठकान्तर्गतः पाठः क ख ग घ. पुस्तकेषु मूलनिबद्धो वर्तते किन्तु 'ल.' पुस्तके नास्ति । २ विग्रहेणामा क, ख, ग, घ०, म । ३ अभेद्योऽय-क०, ख०, ग०, घ० । ४ निर्मिता म० । ५-दादातु ल०। ६ तदुक्त्यनु-१०।
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