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महापुराणे उत्तरपुराणम सीता मयान्हतेत्येतत्कि वक्षि विदितं जनैः । करे कस्य स्थिता सेति विभो त्वरणक्षणे ॥ ४२६ ॥ किमेतेन भवच्छौर्य वदान प्रकटीभवेत् । किं वृथोक्त्या प्रियेणैव राज्ञी मंक्षु १त्वयार्यताम् ॥ ४२७ ॥ इति तद्गुढहासोक्तिवहि सन्तापिताशयः । पुष्पकाधिपतिर्दृष्टिविषाहीन्द्रफणामणिम् ॥ ४२८॥ आदातुमिच्छतो गन्तं गतिं रामोऽभिवाञ्छति । दूतस्त्वं 'तम वध्योऽसि याहि याहीत्यतर्जयत् ॥४२९ ॥ निजित्य सिन्धुरारातिं गजितेनोजिता क्रुधा । ततः कुम्भनिकुम्भोऽग्रकुम्भकर्णादिभिर्भटैः ॥ ४३० ॥ इन्द्रजित्सेन्द्रचर्मातिकन्यार्कखरदूषणैः । खरेण दुर्मुखाख्येन महामुखखगेशिना ॥ ४३१ ॥ क्रन्दैः कुमारैरन्यैश्च तय॑मानोऽनिलात्मजः । गजितेन वृथानेन वनिताजनसम्मुखम् ॥ ४३२॥ किं कृत्यमत्र संग्रामे मदीयं शृणुत्तोचरम् । इत्यवादीचदा नेदमुचितं दुरुदीरितम् ॥ ४३३ ॥ इति तान् वारयन् क्रुद्धान् नयवेदी विभीषणः। याहि भद्रानिवार्योऽयमकार्यखरदूषणैः ॥ ४३४ ॥ शुभाशुभविपाकानां भाविनां को निवारकः । इत्युवाचाणुमांश्चैत्य जानकी वर्जिताशमाम् ॥ ४३५ ॥ मन्दोदर्युपरुध्यास्या द्राग्दृष्ट्वा पारणाविधिम् । ततो वाराशिमुलक्य रामाभ्यर्णमुपागतः ॥ ४३६ ॥ नत्वा किं बहुनोक्तेन सीता तेन न मोक्ष्यते । अतस्तदनुरूपं वा कार्य मा भूत शीतकाः ।। ४३७ ॥ शंसन्ति निश्चिते कृत्ये कृतज्ञाः क्षिप्रकारिताम् । इत्याहादाय तत्प्रोक्तमिक्ष्वाकुकुलकेसरी ॥ ४३८ ॥ चतुरङ्गबलेनामा चित्रकूटवनान्तरे । कालमेव बलं मत्वाऽनैषीद्वर्षर्तुमित्वरः ॥ ४३९ ।।
है कि जिस समय आपने सीता हरी थी उस समय वह किसके हाथमें थी-किसके पास थी ? आप सीताको हर कर नहीं लाये हैं किन्तु चुरा कर लाये हैं । अतः यह कहिये कि इस कार्यसे क्या आपकी शुर-बीरता प्रकट होती है ? अथवा इन व्यर्थकी बातोंसे क्या लाभ है । आप मीठे वचनोंसे ही रानी सीताको शीघ्र वापिस कर दीजिये॥४२४-४२७ ।। इस प्रकार अणुमानसे उत्पन्न हुए तिरस्कार सूचक रूपी अग्निसे जिसका हृदय संतप्त हो रहा है ऐसा पुष्पक विमानका स्वामी रावण कहने लगा कि 'रामचन्द्र, दृष्टिविष सर्पके फणामणिको ग्रहण करनेकी इच्छा करनेवाले पुरुषकी गतिको प्राप्त करना चाहता है--मरना चाहता है। तू दूत होनेके कारण मारने योग्य नहीं है अत: यहाँसे चला जा, चला जा, इस प्रकार रावणने सिंहको जीतनेवाली अपनी गर्जनासे अणमानको ललकारा। तदनन्तर कुम्भ, निकुम्भ एवं क्रूर प्रकृतिवाले कुम्भकर्ण आदि योद्धाओंने इन्द्रजित्, इन्द्रचर्म, अतिकन्यार्क, खरदूषण, खर, दुर्मुख, महामुख आदि विद्याधरोंने और क्रुद्ध हुए अन्य कुमारोंने अणुमान को बहुत ही ललकारा। तब अणुमानने कहा कि स्त्रीजनोंके सामने इस व्यर्थकी गर्जनासे क्या लाभ है ? इससे कौनसा कार्य सिद्ध होता है ? आप लोग मेरा उत्तर संग्राममें ही सुनिये । यह सुन नयोंके जाननेवाले विभीषणने उन क्रुद्ध विद्याधरोंको रोकते हुए कहा कि यह दुर्वचन कहना ठीक नहीं है। विभीषणने अणुमान्से भी कहा कि हे भद्र! तुम अपने घर जाओ। अकार्य करनेके कारण जिसे
आये मनुष्योंने छोड़ दिया है ऐसे इस रावणको कोई नहीं रोक सकता--यह किसीकी बात माननेवाला नहीं है। ठीक ही है आगे आने वाले शुभ-अशुभ कर्मके उदयको भला कौन रोक सकता है ? इस प्रकार विभीषणने कहा तब अणुमान्, जिसने आहार पानी छोड़ रक्खा था ऐसी सीताके पास गया ॥ ४२८-४३५ ।। मन्दोदरीके उपरोधसे सीताने कुछ थोड़ा-सा खाया था उसे देख अणुमान शीघ्र ही समुद्रको पार कर रामचन्द्र के समीप आ गया ॥ ४३६॥ और नमस्कार कर कहने लगा कि बहुत कहनेसे क्या लाभ है ? सबका सारांश यह है कि रावण सीताको नहीं छोड़ेगा इसलिए इसके अनुरूप कार्य करना चाहिए, विलम्ब मत कीजिए, क्योंकि बुद्धिमान मनुष्य निश्चित किये हुए कार्यमें शीघ्रता करनेकी प्रशंसा करते हैं जो कार्य निश्चित किया जा चुका है उसे शीघ्र ही कर डालना चाहिए । अणुमान्की बात सुनकर इक्ष्वाकु वंशके सिंह रामचन्द्र अपनी चतुरङ्ग सेनाके साथ चित्रकूट नामक वनमें जा पहुँचे। वे यद्यपि शीघ्र ही लंकाकी ओर प्रयाण करना चाहते थे तथापि समयको
१तवार्पिताम् क०, प० । त्वयापिता ल० । २ संतपिताशयः ल०। ३ दृष्ट ग०। ४ यन्न ल०,५०,म.।
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