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- महापुराणे उत्तरपुराणम् समुपाविक्षदेकत्र जिनस्तवनपूर्वकम् । समुपेत्य तमप्राक्षं किं मुने स्थानमारमनः ॥ २८५ ॥ सम्पद्यते न वेत्येतद्वचनादब्रवीदसौ। रामलक्षणयोर भरतस्वामिताचिरात् ॥ २८॥ भविष्यति कृतप्रेषणस्य ताभ्यां तवेप्सितम् । सम्पत्स्यते च तत्प्रेष्य क्विञ्चिद्रामनोरमाम् ॥ २८७ ।। विहरन्ती वने वीक्ष्य रावणो माययाऽग्रहीत् । तद्रामलक्ष्मणावद्य लङ्काभिगमनोचितम् ॥ २८ ॥ अन्वेषितारौ पुरुष तिष्ठतः स्वार्थसिद्धये । इति तद्वचनात्तोषावास्मि त्वां प्रतीयिव ॥ २८९ ॥ तौ च तद्वचनात्पूजामुचितां चक्रतुस्तयोः । अथ विज्ञापयामास प्रभअनतनूनवः ॥ २९॥ तवादेशोऽस्ति चेद्देव्याः स्थानमन्वेषयाम्यहम् । तत्प्रत्ययार्थमाख्येयमभिज्ञानं महीपते ॥ २९१ ॥ इति तेनोक्तमाकर्ण्य विनम्यन्वयखेन्दुना । यथाभिप्रेतमेतेन प्रसेत्स्यत्यस्ससंशयम् ॥ २९२ ॥ इति मत्वा स्वनामाङ्कमुद्रिका मत्प्रियेदशी। वर्णादिभिरिति व्यक्तमुक्त्वा तस्मै ददौ नृपः२ ॥२९३॥ स रामचरणाम्भोज विनम्य गगनान्तरम् । समुत्पत्य समुल्लड्डय समुद्रं सत्रिकूटकम् ॥ २९४ ॥ द्विषट्कयोजनायामं नवयोजनविस्तृतम् । द्वात्रिंशत्गोपुरोपेतं रमप्राकारवेष्टितम् ॥ २९५ ॥ नानाभवनसंकीर्ण मणितोरणभास्वरम् । महामेरुसमुत्तुङ्ग रावणावासभाजितम् ॥ २९६ ॥ अलिपुंस्कोकिलालापैर्लसत्कुसुमपल्लवैः । सरागहासं गायद्भिरिवोद्यानैर्मनोहरम् ॥ २९७ ॥ लङ्कानगरमासाद्य सीतान्वेषणतत्परः । गृहीतभ्रमराकारो दशाननसभागृहम् ॥ २९८ ॥ इन्द्रजित्प्रमुखान् भूपकुमारान् वीक्ष्य सादरम् । मन्दोदरीप्रभृत्येतद्वनिताश्च निरूपयन् ॥ २९९ ॥
नताखिलखगाधीशमौलिमालाचिंतक्रमम् । मध्ये सिंहासनं सिंहविक्रमं शक्रसन्निभम् ॥ ३०॥ तत्पर रहते थे। उन्होंने आकाशसे उतरकर पहले तो जिन-मन्दिरोंकी प्रदक्षिणा दी, फिर जिनेन्द्र भगवान्का स्तवन किया और तदनन्तर वे एकान्त स्थानमें बैठ गये। मैंने उनके पास जाकर पूछा कि हे मुने! क्या कभी मुझे अपना पद भी प्राप्त हो सकेगा ? इसके उत्तरमें उन्होंने कहा कि राम और लक्ष्मणका बहुत ही शीघ्र आधे भरतका स्वामीपना प्रकट होनेवाला है ।। २८१-२८६॥ यदि तू उनके दूतका कार्य कर देगा तो उन दोनोंके द्वारा तेरा मनोरथ सिद्ध हो जावेगा। उन्हें दूत भेजने का कार्य यों आ पड़ा है कि रामकी स्त्री वनमें विहार कर रही थी उसे रावण छल पूर्वक हरकर ले गया है। इसलिए आज राम और लक्ष्मण अपना कार्य सिद्ध करनेके लिए लङ्का भेजने योग्य किसी पुरुपकी खोज करते हुए बैठे हैं। इस प्रकार नारदके वचन सुनकर हे देव! बड़े सन्तोषसे हम दोनों आपके पास आये हैं ।। २८७-२८६ ।। दोनों विद्याधरोंके उक्त वचन सुनकर राम-लक्ष्मणने उनका उचित सत्कार किया। तदनन्तर प्रभञ्जनके पुत्र अणुमान् (हनुमान् ) ने प्रार्थना की कि यदि आपकी
आजा हो तो मैं सीता देवीके स्थानकी खोज करूँ। हे राजन् ! देवीको विश्वास उत्पन्न करानेके लिए आप कोई चिह्न बतलाइये ॥२६०-२६१ ।। इस प्रकार उसका कहा सुनकर रामचन्द्रजीको विश्वास हो गया कि विनमिके वंशरूपी आकाशके चन्द्रमास्वरूप इस विद्याधरके द्वारा हमारा अभिप्राय निःसन्देह सिद्ध हो जावेगा ।। २६२ ।। ऐसा मान राजाने मेरी प्रिया रूप रङ्ग आदिमें ऐसी है यह स्पष्ट बताकर उसके लिए अपने नामसे चिह्नित मुद्रिका ( अंगूठी) दे दी।॥ २६३॥ अणुमान् रामचन्द्रके चरण-कमलोंको नमस्कार कर आकाशके बीच जा उड़ा और समुद्र तथा त्रिकूटाचलको लांघकर लङ्का नगरमें जा पहुँचा। वह लङ्का नगर बारह योजन लम्बा और नौ योजन चौड़ा था, बत्तीस गोपुरोंसे सहित था, रनोंके कोटसे युक्त था, महामेरुके समान ऊँचा था, रावणके महलोंसे सुशोभित था, एवं जिनमें भ्रमर और पुंस्कोकिलाएँ मनोहर शब्द कर रही हैं तथा फूल और पत्ते सुशोभित हैं अतएव जो राग तथा हासके साथ गाते हुएसे जान पड़ते हैं ऐसे बाग-बगीचोंसे मनोहर था, ऐसे लङ्का नगरमें जाकर सीताकी खोजमें तत्पर रहनेवाले अणुमान्ने भ्रमरका रूप रख लिया और क्रम-क्रमसे वह रावणके सभागृह, इन्द्रजित् आदि राजकुमारों तथा मन्दोदरी आदि रावणकी स्त्रियोंको बड़े आदरसे देखता हुआ वहाँ पहुँचा जहाँ रावण विद्यमान था॥ २६४-२६॥ तदनन्तर नमस्कार करते हुए समस्त विद्याधर राजाओंके मुकुटोंकी मालाओंसे जिसके चरण
१ प्रतीत सः ग०, १० । प्रतीय वः क० । प्रतीत्य ख० । २ नमः ल । ३ सभागृहे म०, ख.,।
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