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महापुराणे उत्तरपुराणम् प्रारब्धकार्यसंसिखावुद्यतस्य विवेकिनः । प्राहुर्नीतिविदः कोपं व्यसन कार्यविनकृत् ॥ ३१५॥ तस्मादस्थानकोपेन कृतमित्याहितक्षमः । निजागमन बातां तामवबोधयितु सतीम् ॥ ३१६ ॥ मनागवसरावेक्षी स्थितस्तावनिशाकरः । उदयक्ष्माभूदुनासिचूडामणिनिभो बभौ ॥ ३१७ ॥ दशाननोऽप्यतिक्रान्ते तत्रास्या दिनसप्तके । सीता कीरगवस्थेति चिन्तयन् दीपिकावृतः ॥ ३१८॥ दीव्यत्करपद्मोपेतनीलाद्रिरिव जङ्गमः । निरीक्षित तथैवायात् सोत्कण्ठोऽन्तःपुरान्वितः ॥ ३११ ॥ मदत्तः कुशलोदन्तं संश्रोष्यामि कदा न्विति । मत्वा तां स्तिमिताकारां चिरं वीक्ष्य सविस्मयः ॥३२०॥ न काचिचेशी स्त्रीषु . पतिभक्तति चिन्तयन् । अपसृत्य स्थितःकिञ्चिद्दतीमारिकाभिधाम् ॥३२॥ प्राहिणोरदभिप्रायं परिज्ञातुविवेकिनीम् । जानकी विनयेनासौ प्रपद्य शृणु मद्वचः॥ ३२२ ॥ भारिके खगेन्द्रस्य खेचरेन्द्रप्रियात्मजाः । देव्यः पञ्चसहस्राणि स्वत्समाना मनोरमाः ॥ ३२३ ॥ तासां त्वं स्वामिनी भूत्वा महादेवीपदे स्थिता । त्रिखण्डाधिपतेर्भूयाः सश्रीर्वक्षःस्थले चिरम् ॥ ॥३२४॥ विफलं मा कृथा विद्यच्चपलं तव यौवनम् । इस्तात्पुलस्तिपुत्रस्य रामस्त्वा नेष्यतीत्यदः ॥ ३२५ । वितर्कणं कदम्बोरुवनं वा विद्धि निष्फलम् । क्षुधाानेकपारातिवक्त्रान्तर्वतिनं मृगम् ॥ ३२६ ॥ परित्याजयितुं ब्रूहि कः समर्थतमः पुमान् । इत्यभ्यधारदाकर्ण्य निश्चला वसुधासुता ॥ ३२७ ॥ वसुधेव स्थिता भेत्तुं के वा शक्ताः पतिव्रताम् । तां दृष्ट्वा खेचराधीशः स्वयमागत्य कातरः ॥ ३२८ ॥
कुलं चेद्रक्षितुं तिनं विचारक्षमं हि तत् । लज्जा चेद्धीनसम्बन्धात्सा तस्याः प्रसवोऽत्र न ॥ ३२९ ॥ गया तथापि वह नीतिमार्गमें विशारद होनेसे सोचने लगा कि जो विवेकी मनुष्य अपने प्रारम्भ किये हुए कर्मको सिद्ध करनेमें उद्यत रहता है उसे क्रोध करना एक प्रकारका व्यसन है और कार्यमें विघ्न करनेवाला है ऐसा नीतिज्ञ मनुष्य कहते हैं। इसलिए असमयमें क्रोध करना व्यर्थ है ऐसा
उसने क्षमा धारण की और उस पतिव्रताको अपने आनेका समाचार बतलानेके लिए अवसरकी प्रतीक्षा करता हुआ वह वहीं कुछ समयके लिए खड़ा हो गया। उसी समय चन्द्रमाका उदय हो गया और वह उदयाचलके शिखर पर चूडामणिके समान सुशोभित होने लगा ॥ ३१०३१७ ।। उसी समय 'आज सीताको लाये हुए सात दिन बीत चुके हैं अतः देखना चाहिये कि उसकी क्या दशा है। ऐसा विचार करता हुआ रावण वहाँ आया। वह अनेक दीपिकाओंसे आवृत थाउसके चारों ओर अनेक दीपक जल रहे थे इसलिए वह ऐसा जान पड़ता था मानो देदीप्यमान कल्पवृक्षोंसे सहित चलता फिरता नीलगिरि ही हो। वह उत्कण्ठासे सहित था तथा अन्तःपुरकी त्रियोंसे युक्त था ।। ३१८-३१६ ॥ 'मैं अपने पतिका कुशल समाचार कब सुनूँगी' ऐसा विचार करती हुई सीता चुपचाप स्थिर बैठी हुई थी। उसे रावण बड़ी देर तक आश्चर्यसे देखता रहा और त्रियोंके बीच ऐसी पतिव्रता स्त्री कोई दूसरी नहीं है ऐसा विचार कर वह कुछ पीछे हटकर दूर खड़ा रहा । वहींसे उसने सीताका अभिप्राय जाननेके लिए अपनी मञ्जरिका नामकी विवेकवती दूती उसके पास भेजी। वह दूती सीताके पास आकर विनयसे कहने लगी कि हे स्वामिनी, विद्याधरोंके राजा रावणकी पाँच हजार स्त्रियाँ हैं जो विद्याधर राजाओंकी प्रत्रियाँ हैं और तम्हारे ही समान मनोहर हैं । तुम उन सवकी स्वामिनी होकर महादेवीके पदपर स्थित होओ और तीन खण्टके स्वामी रावणके वक्षःस्थलपर चिरकाल तक लक्ष्मीके साथ साथ निवास करो ॥३२०३२४ ।। बिजलीके समान चञ्चल अपने इस यौवनको निष्फल न करो। 'रावणके हाथसे राम तुम्हें बापिस ले जावेगा' इस विचारको तुम कदम्बके विशाल वनके समान निष्फल समझो। भूखसे पीड़ित सिंहके मुखके भीतर वर्तमान मृगको छुड़ानेके लिए कौन मनुष्य समर्थ है ? इस प्रकार उस मञ्जरिका नामकी दूतीने कहा सही परन्तु सीता उसे सुनकर पृथिवीके समान ही निश्चल बैठी रही सो ठीक ही है क्योंकि पतिव्रता स्त्रीको भेदन करनेके लिए कौन समर्थ हो सकता है ? उसे निश्चल देख रावण स्वयं डरते डरते पास आकर कहने लगा कि यदि त कुलकी रक्षा करनेके लिए बैठी है तो यह बात विचार करनेके योग्य नहीं है। यदि लज्जा भाती है तो वह नीच मनुष्योंके संसर्गसे
१ निजागमनतान्त-म०, ल० । २ पतिं भक्तेति ल० । ३ तदृष्ट्वा ल.।
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