________________
३०४
महापुराणे उत्तरपुराणम् भगवत्पत्र को दोषो राज्ञा ते सगमोऽचिरात् । इस्यास्यत्सा ततस्यक्त्वा वैमनस्य॑ महीसुता ॥३४॥
कायस्थितिसमादानं चाभ्युपेत्य कृतत्वरम् । तत्कालोचितकार्योंक्तिकुशला तं न्यसर्जयत् ॥ ३७५॥ प्रणम्य सोऽपि तत्पादपङ्कजं भास्करोदये । गत्वा ततो झटित्याप राम स्वागमनोन्मुखम् ॥३७६।। बदनाब्जप्रसादेन कार्यसिदिन्यवेदयत् । प्रणम्य स्वामिना सम्यक परिरभ्योदितासनः ॥ ३७७॥ उपविष्टो मुदा तेन पृष्टो रष्टेति मत्प्रिया । सप्तपञ्चमुदीर्योर्वचस्तत्प्रीतिहेतुकम् ॥३७८॥ निसर्गाद्रावणो रसश्चक्र चान्यत्समुथयो । लङ्कायां दुनिमित्तानि चासन् कृत्याश्च खेचराः॥ ३७९ ॥ सन्ति तत्सेवकाः सर्वमेतदालोच्य मन्त्रिभिः । जानक्यानयनोपायो निश्चितन्यो यथा तथा ॥१८॥ इतीदमुचित कार्यमवदत्पवनात्मजः । तदुक्तं चेतसा सम्यगवधार्योजिंताशयः ॥ ३८ ॥ उत्ततः सेनापति पट्टबन्धेनानिलनन्दनम् । कृत्वाधिराज्यपटुं च सुग्रीवस्य महीपतिः ॥ ३८॥ सह ताभ्यां समाक्षीन्मन्त्रिणं' कृत्यनिर्णयम् । तत्रैवमङ्गदोऽवोचद्देव त्रेधा महीभुजः ॥ ३८३॥ लोभधर्मासुरातादिविजयान्ताभिधानकाः । प्रथमे दानमन्यस्मिन् सामान्त्ये भेददण्डने ॥ ३८४ ॥ नयज्ञैः कार्यसिद्ध्यर्थमित्युपायः प्रयुज्यते । अन्तिमो रावणस्तेषु नीचत्वाकरकर्मकृत् ॥ ३८५॥ भेददण्डौ प्रयोकव्यौ तस्मिनीतिवेदिभिः । क्रमस्तथापि नोलक्यः साम तावत्प्रयुज्यताम् ॥ ३८॥ क: सामवित्प्रयोकव्य इत्यस्मिन् सम्प्रधारणे। दक्षतादिगुणोपेता बहवः सन्ति भूचराः ॥ ३८॥
श्रतः शरीर धारण करनेके लिए आहार ग्रहण करो ॥ ३६५-३७३ ॥ हे भगवति ! आहार ग्रहण करनेमें क्या दोष है? राजा रामचन्द्रके साथ तुम्हारा समागम शीघ्र ही हो जावेगा। इस प्रकार जब अणुमान्ने कहा तब सीताने उदासीनता छोड़कर शीघ्र ही शरीरकी स्थितिके लिए आहार ग्रहण करना स्वीकृत कर लिया और उस समयके योग्य कार्यों के कहने में कुशल सीताने उस दूतको शीघ्र ही बिदा कर दिया ।।३७४-३७५।। दूत-अणुमान् भी सीताके चरणकमलोंको नमस्कार कर सूर्योदयके समयचलाऔर अपने प्रागमनकी प्रतीक्षा करनेवाले रामचन्द्रके समीप शीघ्र ही पहुंच गया ॥३७६।। उसने पहुँचते ही पहले अपने मुखकमलकी प्रसन्नतासे रामचन्द्रजीको कार्यसिद्धिकी सूचना दी फिर उन्हें प्रणाम किया। स्वामी रामचन्द्रने उसे अच्छी तरह आलिङ्गन कर आसन पर बैठनेके लिए कहा ।जब वह हर्ष पूर्वक आसन पर बैठ गया तब रामचन्द्रने उससे पूछा कि क्यों मेरी प्रिया देखी है ? उत्तरमें अणुमान्ने रामपन्द्रको प्रीति उत्पन्न करनेवाले उत्कृष्ट वचन विस्तारके साथ कहे। वह कहने लगा कि रावण स्वभाव से ही अहङ्कारी है फिर उसके चक्ररत्न भी प्रकट हो गया है । इसके सिवाय लङ्कामें बहुतसे अपशकुन हो रहे हैं और उसके विद्याधर सेवक बहुत ही कुशल हैं। इन सब बातोंका मन्त्रियोंके साथ अच्छी तरह विचार कर जिस तरह सम्भव हो उसी तरह सीताको लानेके उपायका शीघ्र ही निश्चय करना चाहिये । इस प्रकार यह योग्य कार्य अणुमान्ने सूचित किया। बलिष्ट अभिप्रायको धारण करनेवाले रामचन्द्रने अणुमानके कहे वचनोंका हृदयमें अच्छी तरह विचार किया। उसी समय उन्होंने अणुमानको सेनापतिका पट्ट बाँधा और सुग्रीवको युवराज बनाया ॥ ३७७-३८२॥ तदनन्तर उन्होंने उन दोनोंके साथ-साथ मन्त्रीसे करने योग्य कार्यका निर्णय पूछा । उत्तरमें अङ्गदने कहा कि हे स्वामिन् ! राजा तीन प्रकारके होते हैं-१ लोभ-विजय, २ धर्म-विजय और ३ असुर-विजय । नीतिके जाननेवाले विद्वान् अपना कार्य सिद्ध करनेके लिए, पहलेके लिए दान देना, दूसरेके साथ शान्तिका व्यवहार करना और तीसरेके लिए भेद तथा दण्डका प्रयोग करना यही ठीक उपाय बतलाते हैं। इन तीन प्रकारके राजाओंमें रावण अन्तिम-असुरविजय राजा है । वह नीच होनेसे कर कार्य करनेमाला है इसलिए नीतिज्ञ मनुष्योंको उसके साथ भेद और दण्ड उपायका ही यद्यपि प्रयोग करना चाहिये तो भी क्रमका उल्लकन नहीं करना चाहिए। सर्व प्रथम उसके साथ सामका ही प्रयोग करना चाहिए ।। ३८३-३८६ ।। यदि आप इसका निश्चय करना चाहते हैं कि ऐसा सामका जाननेवाला
१ 'मानवमार्चनं कृत्वा मन्दोदयु परोधतः' इति म पुस्तकेऽधिका पाटः । २-वासन् ल. सेनापति पट्टबन्धेनाकृतानिजनन्दनम्' ल•। ४ मन्त्रिणं कर्मनिर्णयम् म.। मन्त्रिणः कर्मनिणयम् ख० ।५ मेददण्डममनन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org