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महापुराणे उत्तरपुराणम् परिष्वज्यानुयुज्याङ्गक्षेमवाता ततः परम् । इदमाज्ञापयत्यत्र दक्षिणाब्ध्यन्तरस्थिताः ॥ २५४ ॥ पटपञ्चाशन्महाद्वीपाश्चक्रवर्त्यनुवर्तिनः । केशवाश्च स्वमाहात्म्याचद परिरक्षिणः ॥ २५५ ॥ द्वीपोऽस्ति तेषु लङ्काख्यास्त्रिकूटाद्रिविभूषितः । तस्मिन् विनमिसन्तानविद्याधरधरेशिनाम् ॥ २५६ ॥ चतुष्टये व्यतिक्रान्ते प्रजापालनलोलुपे । रावणाख्यः खलो लोककण्टकः स्त्रीषु लम्पटः ॥ २५७ ॥ ततोऽभूदन्यदा तस्य नारदेन रणेच्छुना । रूपलावण्यकान्त्यादिकथितं क्षितिजाश्रितम् ॥ २५८ ॥ तदैव मदनामोघवाणनिभिन्नमानसः । पौलस्त्यो ध्वस्तधीधैर्यो मायावी न्यायदूरगः ॥ २५९ ॥ 'अनन्यवेद्यमागत्य सोपायं स्वां पुरी सतीम् । अनैषीद्यावदस्माकमुद्योगसमयो भवेत् ॥ २६॥ तावत्स्वकायसंरक्षा कर्तव्येति प्रियां प्रति । प्राहिणोतु कुमारोऽध्यं दूतं स्वं धीरयन्निति ॥ २६ ॥ पितृलेखार्थमाध्याय रुद्धशोकः क्रुधोद्धतः । अन्तकस्याङ्कमारोढुं स लकेशः किमिच्छति ॥ २६२ ॥ शशस्य सिंहपोतेन किं विरोधेऽस्ति जीविका । सत्यमासन्नमृत्यनां सद्यो विध्वंसन मतेः ॥ २६३ ॥ इत्युद्धतोदितैः कोपमाविश्चक्रेऽथ लक्ष्मणः । जनको भरतः शत्रुघ्नश्च उतवृत्तकश्रुतेः ॥ २६४ ॥ सम्प्राप्य राघवं सोपचारमालोक्य युक्तिमद् । वाक्यैः शोकं समं नेतु तदैवं ते समब्रुवन् ॥ २६५ ॥ चौर्येण रावणस्यैव परदारापहारिणः । पराभवः परिद्रोग्धा दुरात्माऽधर्मवर्तनः ॥ २६६ ॥ सीताशापेन दाह्योऽसौ निविंचार्यमकार्यकृत् । महापापकृतां पापमस्मिन्नेव फलिष्यति ॥ २६७ ॥ उपायश्चिन्त्यतां कोऽपि सीताप्रत्ययन प्रति । इति तैर्बोधितो रामः सुप्तोत्थित इवाभवत् ॥ २६८ ॥
समुद्रके बीचमें स्थित छप्पन महाद्वीप विद्यमान हैं जो चक्रवर्तीके अनुगामी हैं अर्थात् उन सबमें चक्रवर्तीका शासन चलता है। नारायण भी अपने माहात्म्यसे उन द्वीपोंमेंसे आधे द्वीपोंकी रक्षा करते हैं ॥२५३-२५५ ॥ उन द्वीपोंमें एक लङ्का नामका द्वीप है, जो कि त्रिकूटाचलसे सुशोभित है। उसमें क्रम-क्रमसे राजा विनमिकी सन्तानके चार विद्याधर राजा, जो कि प्रजाकी रक्षा करनेमें सदा तत्पर रहते थे, जब व्यतीत हो चुके तब रावण नामका वह दुष्ट राजा हुआ है जो कि लोकका कण्टक माना जाता है और स्त्रियोंमें सदा लम्पट रहता है ।। २५६-२५७ ॥ तदनन्तर युद्धकी इच्छा रखने वाले नारदने किसी एक दिन रावणके सामने सीताके रूप लावण्य और कान्ति आदिका वर्णन किया। उसी समय रावणका मन कामदेवके अमोघ वाणोंसे खण्डित हो गया। उसकी बुद्धिकी धीरता जाती रही। न्यायमार्गसे दूर रहनेवाला वह मायावी जिस तरह किसी दूसरेको पता न चले सके इस तरह-गुप्तरूपसे आकर सती सीताको किसी उपायसे अपनी नगरीमें ले गया है सो जबतक हम लोगोंके उद्योग करनेका समय आता है तबतक अपने शरीरकी रक्षा करनी चाहिये इस प्रकार प्रियासीताके प्रति उसे समझानेके लिए कुमारको अपना कोई श्रेष्ठ दूत भेजना चाहिये। ऐसा महाराज दशरथने अपने पत्रमें लिखा था। पिताके पत्रका मतलब समझकर रामचन्द्रका शोक तो रुक गया परन्तु वे क्रोधसे उद्धत हो उठे। वे कहने लगे कि क्या रावण यमराजकी गोदमें चढ़ना चाहता है ॥ २५८-२६२॥ सिंहके बच्चेके साथ विरोध करनेपर क्या खरगोशका जीवन बच सकता है ? सच है कि जिनकी मृत्यु निकट आ जाती है उनकी बुद्धि शीघ्र ही नष्ट हो जाती है ।। २६३ ।। इस प्रकार रोष भरे शब्दों द्वारा रामचन्द्रने क्रोध प्रकट किया। तदनन्तर-लक्ष्मण, जनक, भरत और शत्रन्न यह समाचार सुनकर रामचन्द्रजीके पास आये और बड़ी विनय सहित उनसे मिलकर युक्तिपूर्ण शब्दों द्वारा उनका शोक दूर करनेके लिए सब एक साथ इस प्रकार कहने लगे ॥२६४-२६५ ।। उन्होंने कहा कि रावण चोरीसे परस्त्री हर कर ले गया है इससे उसीका तिरस्कार हुआ है। वह द्रोह करने वाला है, दुष्ट है और अधर्मकी प्रवृत्ति चलानेवाला है। उसने चूंकि बिना विचार किये ही यह अकार्य किया है अतः वह सीताके शापसे जलने योग्य है। महापाप करनेवालोंका पाप इसी लोकमें फल देता है ।। २६६-२६७ ।। अब सीताको वापिस लानेका कोई उपाय सोचना चाहिए। इस प्रकार उन सबके द्वारा समझाये जानेपर रामचन्द्रजी सोयेसे उठे हुएके समान सावधान हो
१ लोलुपः । २ अनन्यवेष ल० । ३ तवृत्त कश्रतः ल० । ४ धितो ल०। Jain Education International
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