________________
अष्टषष्टं पर्व
२६७
तत्काले खेचरद्वन्द्र दौवारिकनिवेदितम् । नृपानुगतमागत्य यथोचितम लोकत ॥ २१९॥ भविष्यदलदेवोऽपि कृततद्योगसम्पदः । एतदागमनं कस्मात्कौ भवन्तौ कुमारको ॥ २७ ॥ इत्यन्वयुक्त सुग्रीवस्तवेदं सम्यगब्रवीत् । खगाद्रिदक्षिणश्रेण्यां पुरं किलकिलाइयम् ॥ २७१ ॥ तदधीशो बलीन्द्राख्यो विख्यातः खचरेष्वसौ। प्रियङ्गसुन्दरी तस्य प्रिया तस्यां तनूजवौ । २०२॥ बालिसुग्रीवनामानावजायावहि भूभुजाम् । पितर्युपरतेऽजायताग्रजस्याधिराजता ॥ २७३॥ ममापि युवराजत्वमजनिष्ट क्रमागतम् । एवं गच्छति तत्स्थानमपहृत्य मदग्रजः ॥ २७४ ॥ लोभाक्रान्ताशयो देशात् स निर्वासयति स्म माम् । एषोऽपि दक्षिणश्रेण्या विद्युत्कान्तापुरेशिनः ॥२७५॥ प्रभानखगाधीशस्तनूजोऽमिततेजवाक । त्रिधाविद्योऽअनादेव्यामव्याहतपराक्रमः ॥ २७६ ॥ नभश्चरकुमाराणां समुदाये परस्परम् । कदाचिदात्मविद्यानामनुभावपरीक्षणे ॥ २७७ ॥ विजयार्द्धगिरे{नि क्रम विन्यस्य दक्षिणम् । वामपादेन भास्वन्तमपहाय पुनस्तदा ॥ २७८॥ प्रसरेणुप्रमाणं स्वं शरीरमकृताद्भतम् । ततः प्रभृति विद्यशैविस्मयाहितमानसैः ॥ २७१ ॥ भणुमानिति हर्षेण निखिलैरभ्यधाय्ययम् । पीतव्याकरणाम्भोधिः सखा प्राणाधिको मम ॥ २८ ॥ गत्वा कदाचिदेतेन सह सम्मेदपर्वतम् । सिद्धकूटाभिधे तीर्थक्षेत्रेऽहत्प्रतिमा बहुः ॥ २८१ ॥ अभ्यर्च्य भक्त्या वन्दित्वा स्थितोऽस्मिन् शुभभावनः । जटामुकुटसन्धारी 'मुक्तायज्ञोपवीतकः ॥२८२॥ काषायवस्ः कक्षावलम्बिरत्नकमण्डलुः । करोद्धतातपत्राणो नैष्ठिकब्रह्मसद्वतः॥ २८३॥ नारदो विशिखारूढो रौद्रध्यानपरायणः । अवतीर्य नभोभागारपरीत्य जिनमन्दिरम् ॥ २८४ ॥
गये ।। २६८ ।। उसी समय द्वारपालोंने दो विद्याधरोंके आनेका समाचार कहा। राजा रामचन्द्रने उन्हें भीतर बुलाया और उन्होंने योग्य विनयके साथ उनके दर्शन किये ॥ २६६ ॥ होनहार बलभद्र रामचन्द्र भी उनके संयोगसे हर्षित हुए और पूछने लगे कि आप दोनों कुमार यहाँ कहाँसे आये हैं ? और आप कौन हैं ? इसके उत्तरमें सुप्रीव कहने लगा कि विजयार्ध पर्वतकी दक्षिण श्रेणीमें एक किलकिल नामका नगर है । विद्याधरोंमें अतिशय प्रसिद्ध बलीन्द्र नामका विद्याधर उस नगरका स्वामी था। उसकी प्रियङ्गसुन्दरी नामकी स्त्री थी। उन दोनोंके हम बाली और सुग्रीव नामके दो पुत्र उत्पन्न हुए। जब पिताका देहान्त हो गया तब बड़े भाई बालीको राज्य प्राप्त हुआ और मुझे क्रमप्राप्त युवराज पद मिला। इस प्रकार कुछ समय व्यतीत होने पर मेरे बड़े भाई बालीके हृदयको लोभने धर दबाया इसलिए उसने मेरा स्थान छीनकर मुझे देशसे बाहर निकाल दिया। यह तो मेरा परिचय हुआ अब रहा यह साथी। सो यह भी दक्षिण श्रेणीके विद्यत्कान्त नगरके स्वामी प्रभञ्जन विद्याधरका अमिततेज नामका पुत्र है। यह तीनों प्रकारकी विद्याएँ जानता है, अञ्जना देवीमें उत्पन्न और अखण्ड पराक्रमका धारक है ।। २७०-२७६ ।। किसी एक समय विद्याधर-कुमारोंके समूहमें परस्पर अपनी-अपनी विद्याओंके माहात्म्यकी परीक्षा देनेकी बात निश्चित हुई। उस समय इसने विजया पर्वतके शिखर पर दाहिना पैर रखकर बायें पैरसे सूर्यके विमानमें ठोकर लगाई । तदनन्तर उसी क्षण त्रसरेणुके प्रमाण अपना छोटा-सा शरीर बना लिया। यह देख, विद्याधरोंके चित्त आश्चर्यसे भर गये, उसी समय समस्त विद्याधरोंने बड़े हर्षसे इसका 'अणुमान। यह नाम रक्खा। इसने विक्रियारूपी समुद्रका पान कर लिया है अर्थात् यह सब प्रकारकी विक्रिया करनेमें समर्थ है, यह मेरा प्राणोंसे भी अधिक प्यारा मित्र है ॥२७७-२८०॥ मैं किसी
देन इसके साथ सम्मेदशिखर पर्वतपर गया था वहाँ सिद्धकूट नामक तीर्थक्षेत्रमें अर्हन्त भगवान्की बहुत सी प्रतिमाओंकी भक्ति पूर्वक पूजा वन्दनाकर वहींपर शुभ भावना करता हुआ बैठ गया। उसी समय वहाँपर विमानमें बैठे हुए नारदजी आ पहुँचे । वे जटाओंका मुकुट धारण कर रहे थे, मोतियोंका यज्ञोपवीत पहिने थे, गेरुवा वस्रोंसे सुशोभित थे, उनकी बगलमें रखोंका कमण्डल लटक रहा था, वे हाथमें छत्ता लिये हुए थे, नैश्विक ब्रह्मचारी थे, और सदा रौद्रध्यानमें
१ ययातिमत ल० (१)।२ शुभयज्ञोपवीतकः ल० । ३-विशिखासदाल । (विमानारूढः)।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org