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अष्टषष्टं पर्व
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स्वयं परिजनेनापि भास्करो दिवसेन वा । दृष्ट्वा तं मत्प्रिया केति नृपः प्रपृच्छ साकुलः ॥ २४० ॥ देव देवी च देवो वा नास्माभिरवलोकितः । देवी छायेव ते तस्मात्त्वमवैषीति सोऽभ्यधात् ॥ २४१॥ १इति तद्वचनाल्लब्धरन्ध्रा रामं समग्रहीत् । मूच्छा सीतासपनीव मोहयन्ती मनः क्षणम् ॥ २४२॥ तदा शीतक्रिया सीतासखीव सहसा नृपम् । व्यश्लेषयत्ततः सोऽपि व सीतेति प्रबुद्धदान् ॥ २४३ ॥ देवीं परिजनः सर्वः समन्तात्प्रतिभूरुहम् । अन्वेषयन् विलोक्योत्तरीयं वंशविदारितम् ॥ २४४ ॥ तस्यास्तदा तदानीय राघवाय समर्पयत् । उत्तरीयांशुकं देव्या भवत्येतदितः कुतः ॥ २४५ ॥ इति विज्ञाततत्तत्वं शोकव्याकुलमानसः । सहानुजस्ततश्चिन्तां कुर्वन्नुर्वीश्वरः स्थितः ॥ २४६ ॥ तत्क्षणे सम्भ्रमाक्रान्तो दूतो दशरथान्तिकात् । तं प्राप्य विनतो मूर्ना कार्यमित्थमभाषत ॥ २७॥ गृहीत्वा रोहिणी राहो प्रयाते गगनान्तरम् । एकाकिनं तुषारांशुं भ्राम्यन्तं समलोकिषि ॥ २४८ ॥ स्वमे किं फलमेतस्येत्यन्वयुक्त महीपतिः। पुरोहितमसौ चाह सीतामद्य दशाननः ॥ २४९ ॥ गृहीत्वायात्स मायावी रामः स्वामी च कानने । तां समन्वेषितु शोकादाकुलो भ्राम्यति स्वयम् ॥२५॥ मक्षु दूतमुखादेतत्प्रापणीयमिति स्फुटम् । तद्राजाज्ञागतोऽस्मीति लेखगर्भकरण्डकम् ॥ २५॥ न्यधाच्चाने तदादाय शिरसा रघुनन्दनः । विमोच्य पत्रमन्त्रस्थं स्वयमित्थमवाचयत् ॥ २५२ ॥ इतो विनीतानगरात् श्रीमतः श्रीमतां पतिः। प्रेमप्रसारितात्मीयभुजाभ्यां स्वप्रियात्मजौ ॥ २५३ ॥
नके साथ आ मिलता है उसी प्रकार जानकीवल्लभ रामचन्द्रजी परिवारके लोगोंके साथ आ मिले। परिजनको देखकर राजा रामचन्द्रजीने बड़ी व्यग्रतासे पूछा कि हमारी प्रिया-सीता कहाँ है ? परिजनने उत्तर दिया कि हे देव ! हम लोगोंने न आपको देखा है और न देवीको देखा है । देवी तो छायाके समान आपके पास ही थी अतः आप ही जाने कि वह कहाँ गई ? इस प्रकार परिजनके वचनोंसे प्रवेश पाकर क्षण भरके लिए मनको मोहित करती हुई सीताकी सपत्नीके समान मूर्छाने रामचन्द्रको पकड़ लिया- उन्हें मूर्छा आ गई ।। २३६-२४२ ।। तदनन्तर-सीताकी सखीके समान शीतोपचारकी क्रियाने राजा रामचन्द्रको मूच्छासे जुदा किया और 'सीता कहाँ है?? ऐसा कहते हुए वे प्रबुद्ध-सचेत हो गये ।। २४३ ।। परिजनके समस्त लोगोंने सीताको प्रत्येक वृक्षके नीचे खोजा पर कहीं भी पता नहीं चला। हाँ, किसी वंशकी झाड़ी में उसके उत्तरीय वस्त्रका एक टुकड़ा फटकर लग रहा था परिजनके लोगोंने उसे लाकर रामचन्द्रजीको सौंप दिया। उसे देखकर वे कहने लगे कि यह तो सीताका उत्तरीय वस्त्र है, यहाँ कैसे आया ? ॥ २४४-२४५ ॥ थोड़ी ही देरमें रामचन्द्रजी उसका सब रहस्य समझ गये। उनका हृदय शोकसे व्याकुल हो गया और वे छोटे भाईके साथ चिन्ता करते हुए वहीं बैठ रहे ॥ २४६ ।। उसी समय संभ्रमसे भरा एक दूत राजा दशरथके पाससे आकर उनके पास पहुंचा और मस्तक झुकाकर इस प्रकार कार्यका निवेदन करने लगा ।। २४७॥ उसने कहा कि आज महाराज दशरथने स्वप्न देखा है कि राहु रोहिणीको हरकर दूसरे श्राकाशमें चला गया है और उसके विरहमें चन्द्रमा अकेला ही वनमें इधर-उधर भ्रमण कर रहा है। स्वप्न देखनेके बाद ही महाराजने पुरोहितसे पूछा कि 'इस स्वप्नका क्या फल है। परोहितने उत्तर दिया कि आज मायावी रावण सीताको हरकर ले गया है और स्वामी रामचन्द्र उसे खोजनेके लिए शोकसे आपुल हो वनमें स्वयं भ्रमण कर रहे हैं। दूतके मुखसे यह समाचार स्पष्टरूपसे शीघ्र ही उनके पास भेज देना चाहिये। इस प्रकार पुरोहितने महाराजसे कहा और महाराजकी आज्ञानुसार मैं यहाँ आया है। ऐसा कह दुतने जिसमें पत्र रखा हुआ था ऐसा पिटारा रामचन्द्रके सामने रख दिया । रामचन्द्रने उसे शिरसे लगाकर उठा लिया और खोलकर भीतर रखा हुआ पत्र इस प्रकार बाँचने लगे॥२४८-२५२ ।। उसमें लिखा था कि इधर लक्ष्मीसम्पन्न अयोध्या नगरसे लक्ष्मीवानोंके स्वामी महाराज दशरथ प्रेमसे फैलाई हुई अपनी दोनों भुजाओंके द्वारा अपने प्रिय पुत्रोंका आलिहनकर तथा उनके शरीरकी कुशल-वार्ता पूछकर यह आज्ञा देते हैं कि यहाँ से दक्षिण दिशाकी ओर
१ अथ क०, ख०, ग०।
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