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अष्टषष्टं पर्व
२६३ इन्द्रनीलच्छविं देहं गूढार्थ शिष्यसन्ततेः । आचार्यों वा स तस्याः स्वं सुचिरात्समदर्शयत् ॥ २१॥ भयेन लज्जया रामविरहोत्थशुचा च सा । अगाद्राजसुता मूर्छामतिकृच्छूप्रतिक्रियाम् ॥ २१२॥ सद्यः शीलवतीस्पर्शाद्विद्या गनगगामिनी । विनश्यतीति भीत्वाऽसौ जानकी स्वयमस्पृशन् ॥ २१३॥ विद्याधरीः समाहृय शीताम्बुपवनादिभिः । मूर्छामस्या निराकुर्युरिति दक्षा न्ययोजयत् ॥२१४ ॥ उपायैस्ताभिरुद्धतमूर्छाऽवोचद्धरासुता। यूयं काः कः प्रदेशोऽयमिति शङ्काकुलाशया ॥ २१५॥ विद्याधर्यो वयं लङ्कापुरमेतन्मनोहरम् । वनं रावणराजस्य त्रिखण्डाधिपतेरिदम् ॥ २१६ ॥ वारशी वनिता लोके न काचित्पुण्यभागिनी । महेन्द्रमिव पौलोमी सुभद्रेवादिभूपतिम् ॥ २१७ ॥ श्रीमती बज्रजी वा त्वमेनं कुरु ते पतिम् । स्वामिनी भव सौभाग्याद्रावणस्य महाश्रियः ॥ २१८ ॥ जानकी ताभिरित्युक्ता सुदूना दीनमानसा । किं पौलोम्यादयः शीलभङ्गेन ताः पतीन् स्वयम् ॥ २१९॥ प्राणेभ्योऽप्यधिकान् का वा विक्रीणन्ति गुणान् श्रिया। त्रिखण्डस्याधिपोऽस्त्वस्तु षटखण्डस्याखिलस्य वा किं तेन यदि शीलस्य खण्डनं मण्डनस्य मे । प्राणाः सतां न हि प्राणाः गुणाः प्राणाः प्रियास्ततः ॥२२१॥ तव्ययात्पालयाम्येतान् गुणप्राणान जीविकाम् । मूर्तिविनश्वरी यातु विनाशमविनश्वरम् ॥ २२२ ।। विनश्यति न मे शीलं कुलशैलानुकारि तत् । इति प्रत्युत्तरं दत्वा गृहीत्वा सा व्रतं तदा ॥ २२३॥ वदिष्यामि न भोक्ष्ये च यावन्न भूयते मया । रामस्य क्षेमवार्तेति मनसालोच्य सुव्रता ॥२२४॥
अवबोधितवैधम्यविरुद्धस्वल्पभूषणा । यथार्थ चिन्तयन्त्यास्त सन्ततं संसृतेः स्थितिम् ॥ २२५॥ दूरकर उसके लानेका क्रम सूचित किया। जिस प्रकार कोई आचार्य अपनी शिष्य-परम्पराके लिए किसी गूढ अर्थको बहुत देर बाद प्रकट करता है उसी प्रकार उसने इन्द्रनील मणिके समान कान्ति वाला अपना शरीर बहुत देर बाद सीताको दिखलाया ।। २१०-२११ ।। उसे देखते ही राजपुत्री सीता, भयसे, लज्जासे, और रामचन्द्रके विरहसे उत्पन्न शोकसे तीव्र दुःखका प्रतिकार करनेवाली मूर्छाको प्राप्त हो गई ॥२१२॥ शीलवती पतिव्रता स्त्रीके स्पर्शसे मेरी आकाशगामिनी विद्या
शीघ्र ही नष्ट हो जावेगी इस भयसे उसने सीताका स्वयं स्पर्श नहीं किया ।। २१३ ॥ किन्तु चतुर विद्याधरियोंको बुलाकर यह आदेश दिया कि तुमलोग शीतल जल तथा हवा आदिसे इसकी मूर्छा दूर करो ॥२१४|| जब उन विद्याधरियोंके अनेक उपायोंसे सीताकी मूर्छा दूर हुई तब शङ्कासे व्याकुलहृदय होती हुई वह उनसे पूछने लगी कि आप लोग कौन हैं ? और यह प्रदेश कौन है ? ।। २१५ ।। इसके उत्तरमें विद्याधरियाँ कहने लगी कि हम लोग विद्याधरियाँ हैं, यह मनोहर लङ्कापुरी है, और
(खण्डके स्वामीराजारावणका वन है। इस संसारमें आपके समान कोई दूसरीस्त्री पुण्यशालिनी नहीं है क्योंकि जिस प्रकार इन्द्राणीने इन्द्रको, सुभद्राने भरत चक्रवर्ती को और श्रीमतीने वजजकको अपना पति बनाया था उसी प्रकार आप भी इस रावणको अपना पति बना रही हैं। आप सौभाग्यसे महालक्ष्मीके धारक रावणकी स्वामिनी होओ ।। २१६-२१८ ।। इस प्रकार विद्याधरियोंके कहनेपर सीता बहुत ही दुःखी हुई, उसका मन दीन हो गया। वह कहने लगी कि क्या इन्द्राणी
आदि स्त्रियाँ अपना शील भङ्गकर इन्द्र आदि पतियोंको प्राप्त हुई थीं ? ।। २१६ ॥ ऐसी कौनसी स्त्रियाँ हैं जो प्राणोंसे भी अधिक अपने गुणोंको लक्ष्मीके बदले बेच देती हों। रावण तीन खण्डका स्वामी हो, चाहे छह खण्डका स्वामी हो और चाहे समस्त लोकका स्वामी हो ॥२२० ॥ यदि वह मेरे आभूषण स्वरूप शीलका खण्डन करनेवाला है तो मुझे उससे क्या प्रयोजन है ? सजनोंको प्राण प्यारे नहीं, किन्तु गुण प्राणोंसे भी अधिक प्रिय होते हैं ॥ २२१ ।। मैं प्राण देकर अपने इन गुणरूपी प्राणोंकी रक्षा करूँगी जीवनकी नहीं। यह नश्वर शरीर भले ही नष्ट हो जावे परन्तु कुलाचलोंका अनुकरण करनेवाला मेरा शील कभी नष्ट नहीं हो सकता'। इस प्रकार प्रत्युत्तर देकर उत्तम शील व्रतको धारण करनेवाली सीताने मनसे विचार किया और यह नियम ले लिया कि जबतक रामचन्द्रजीकी कुशलताका समाचार नहीं सुन लूँगी तबतक न बोलूंगी और न भोजन ही करूँगी ॥ २२२-२२४॥ वैधव्यपना प्रकट न हो इस विचारसे जिसने अपने शरीरपर थोड़ेसे ही आभूषण रख छोड़े थे बाकी सब दूरकर दिये थे ऐसी सीता वहाँ संसारकी दशाका विचार करती हुई रहने
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