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अष्टषष्ट पर्व
२६१ श्रुत्वा तद्वचनं सर्वमसत्यमवधारयन् । प्रकटीकृतकोपाग्निरिङ्गिताकारवृत्तिभिः ॥ १८३ ॥ मुग्धे फणीन्द्रनिश्वासभोगाटोपविलोकनात् । भीत्वा तद्ग्रहणं को वा विषवादी विमुञ्चति ॥ १८४ ॥ बाह्यस्थैर्यवचः श्रुत्वा भीत्वा तस्यास्त्वमागता । गजकर्णचला स्त्रीणां चित्तवृत्तिर्न वेत्सि किम् ॥ १८५॥ नास्याश्चित्तं त्वयाभेदि न जाने केन हेतुना । उपायकुशलाभासीत्यसौ तामभ्यतर्जयत् ॥ १८६ ॥ भोगोपभोगद्वारेण रअयेयं मनो यदि । तत्र यद्वस्तु नान्यत्र तत्स्वमेऽप्युपलभ्यते ॥ १८ ॥ अथ शौयादिभी रामसहशो न क्वचित्पुमान् । वीणादिभिश्चेत्सा सर्वकलागुणविशारदा ।। १८८ ॥ सुग्रहं तलहस्तेन भूमिष्टैर्भानुमण्डलम् । पातालादपि शेषाहिः सुहरो डिम्भकेन च ॥१८९ ।। समुत्तानयितु शक्का ससमुद्रा वसुन्धरा । भेत्तुं शीलवतीचित्तं न शक्यं मन्मथेन च ॥ १९० ॥ इत्याख्यत्साप्यदः पापादवकर्ण्य स रावणः । निर्मलैः केतनैरात्पश्यतां जनयदशम् ॥ १९१॥ हंसावलीति सन्देहं नवनिर्मोकहासिभिः । दिशो मुखरय मघण्टाचटुलनिःस्वनैः ॥ १९२ ॥ कुर्वद्धनैर्धनाश्लेषं विश्लिष्टैरिव बन्धुभिः । ययौ पुष्पकमारुह्य गगने सह मन्त्रिणा ॥ १९३ ॥ ध्वजदण्डाग्रनिभिन्नवारिदच्युतवार्लवैः । मन्दगन्धवहानीविनीताध्वपरिश्रमः ॥ १९४ ॥ सीतोत्सुकस्तथा गच्छन् ददृशे पुष्पकस्थितः। शरदलाहकान्तःस्थो वासौ नीलवलाहकः ॥ १९५॥ सम्प्राप्य चित्रकूटाख्यं प्रधानं नन्दनं वनम् । प्रविष्ट इव सीतायाश्चित्तं तुष्टिमगादलम् ॥ १९६ ॥
तुम्हारा अभिमत उसके सामने नहीं कहा ॥ १८२॥ शूपंगखाके वचन सुन रावणने वह सब झूठ समझा और अपनी चेष्टा तथा मुखाकृति आदिसे क्रोधाग्निको प्रकट करता हुआ वह कहने लगा कि हे मुग्धे ! ऐसा कौन विषवादी-गारुड़िक है जो सर्पका निःश्वास तथा फणाका विस्तार देख उसके भयसे उसे पकड़ना छोड़ देता है।।१८३-१८४॥ उसकी बाह्य धीरताके वचन सुनकर ही तू उससे डर गई और यहाँ वापिस चली आई। स्त्रियोंकी चित्तवृत्ति हाथीके कानके समान चञ्चल होती है यह क्या तू नहीं जानती ? ॥ १८५ ॥ मैं नहीं जानता कि तूने इसका चित्त क्यों नहीं भेदन किया। तु उपायमें कुशल नहीं है किन्तु कुशल जैसी जान पड़ती है। ऐसा कह रावणने शूर्पणखाको खूब डाँट दिखाई ।। १८६ ॥ इसके उत्तरमें शूर्पणखा कहने लगी कि यदि मैं भोगोपभोगकी वस्तुओंके द्वारा उसका मन अनुरक्त करती तो जो वस्तु वहाँ रामचन्द्रके पास हैं वे अन्यत्र स्वप्नमें भी नहीं मिलती हैं ।। १८७॥ यदि शूर-वीरता आदिके द्वारा उसे अनुरक्त करती तो रामचन्द्रके समान शूरवीर पुरुष कहीं नहीं है । यदि वीणा आदिके द्वारा उसे वश करना चाहती तो वह स्वयं समस्त कला
और गुणोंमें विशारद है। भूमि पर खड़े हुए लोगोंके द्वारा अपनी हथेलीसे सूर्यमण्डलका पकड़ा जाना सरल है, एक बालकभी पाताल लोकसेशेषनागका हरण कर सकता है ॥१८८-१८६॥ और समुद्र सहित पृथिवी उठाई जा सकती है परन्तु शीलवती स्त्रीका चित्त कामसे भेदन नहीं किया जा सकता। शूर्पणखाके वचन सुनकर रावण पापकर्मके उदयसे पुष्पक विमान पर सवार हो मन्त्रीके साथ आकाशमागेसे चल पड़ा। पुष्पक विमान पर साँपकी नई काँचलीकी हँसी करनेवाली निर्मल पताकाएँ फहरा रही थीं उनसे वह लोगोंको 'यह हंसोंकी पंक्ति है। ऐसा सन्देह उत्पन्न कर रहा था। सुवर्णकी बनी छोटी-छोटी घण्टियोंके चश्चल शब्दोंसे वह पुष्पक विमान दिशाओंको मुखरित कर रहा था और मेघोंके साथ ऐसा गाढ़ आलिङ्गन कर रहा था मानो बिछुड़े हुए बन्धुओंके साथ ही
आलिङ्गन कर रहा हो ॥ १६०-१६३ ।। उस पुष्पक विमान पर जो ध्वजा-दण्ड लगा हुआ था उसके अग्रभागसे मेघ खण्डित हो जाते थे, उन खण्डित मेघोंसे पानीकी छोटी-छोटी बूंदे झड़ने लगती थी, मन्द-मन्द वायु उन्हें उड़ा कर ले आती थी जिससे रावणका मार्गसम्बन्धी सब परिश्रम दूर होता जाता था ॥ १६४ ॥ सीतामें उत्सुक हो पुष्पक विमानमें बैठकर जाता हुआ रावण ऐसा दिखाई देता था मानो शरद् ऋतुके मेघोंके बीचमें स्थित नीलमेघ ही हो ॥ १६५ ।। जब वह चित्रकूट नामक आनन्ददायी प्रधान वनमें प्रविष्ट हुआ तब ऐसा सन्तुष्ट हुआ मानो सीताके मनमें ही प्रवेश पा चुका
१ ध्वनघण्टाग्र-म०।२चित्रकूटाख्यनन्दनं नन्दनस्वनम् ल०।
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