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महापुराणे उत्तरपुराणम् सदाशयाथ मारीचः परायमणिनिर्मितः । भूत्वा हरिणपोतोऽसौ सीतायाः स्वमदर्शयत् ॥ १९७ ॥ तं मनोहारिणं दृष्टा पश्य नाथातिकौतुकम् । हरिणश्चित्रवर्णोऽयं रायत्यजसा मनः ॥ १९८ ॥ इति सीतावचः श्रुत्वा विनेतु तत्कुतूहलम् । तदानिनीषया गत्वा रामो वामे विधी विधीः ॥ १९९ ॥ ग्रीवाभङ्गेन वा पश्यन् कुर्वन् दूरं पुनः प्लतिम् । वलगन्धावन् क्षणं खादन् विभयो वा तृणाङ्करम् ॥२०॥ हस्तग्राह्यमिवात्मानं कृत्वोड्डीयातिदूरगः । वृथा कर्षति मां मायामृगो वैषोऽतिदुर्ग्रहः ॥ २०१॥ वदन्नित्यन्वगात्सोऽपि मृगोऽगादगमाङ्गणम् । कुतः कृत्यपरामर्शः स्त्रीवशीकृतचेतसाम् ॥ २०२॥ लोकमानो नभो रामस्तनुतामतिरूपयन् । तस्थौ तथैव विभ्रान्तो घटान्तरगताहिवन् ॥ २०३॥ 'अथातो रामरूपेण परिवृत्तो दशाननः । सीवामित्वा पुरोयत्वा प्रहितो हरिणो मया ॥ २० ॥ वारुणीदिक् प्रिये पश्य बिम्बमेषांशुमालिनः । सिन्दूरतिलकं न्यस्तं बिभ्रतीव विराजते ॥ २०५॥ आरोह शिबिको तस्मादाशु सुन्दरि वन्धुराम् । पुरीगमनकालोऽयं वर्तते सुखरात्रये ॥ २०६॥ इत्यवादीरादाकर्ण्य सा मायाशिविकाकृति । विमानं पुष्पकं मोहादारुरोह धरासुता ॥ २०७ ॥ रामं वा तुरगारूढमात्मनं स्म प्रदर्शयन् । महीगतमिव प्रान्ति जनयन् दुहितुर्म हैः ॥ २० ॥ तां भुजङ्गीमिवानैषीदुपायेन स्वमृत्यवे । पतिव्रताग्रगां पापी मायाचुचुर्दशाननः ॥ २०९ ॥
क्रमालकामवाप्यैनामवतार्य वनान्तरे । सद्यो मायां निराकृत्य ज्ञापितानयनक्रमम् ॥ २१० ॥ हो ।। १६६॥ तदनन्तर रावणकी आज्ञासे मारीचने श्रेष्ठ मणियोंसे निर्मित हरिणके बच्चेका रूप बनाकर अपने आपको सीताके सामने प्रकट किया ।। १६७॥ उस मनोहारी हरिणको देखकर सीता रामचन्द्रजीले कहने लगी कि हे नाथ! यह बहुत भारी कौतुक देखिये, यह अनेक वर्णों वाला हरिण हमारे मनको अनुरञ्जित कर रहा है ।। १६८ ॥ इस प्रकार भाग्यके प्रतिकूल होने पर बुद्धि रहित रामचन्द्र सीताके वचन सुन उसका कुतूहल दूर करनेके लिए उस हरिणको लानेके इच्छासे चल पड़े ॥ १६ ॥ वह हरिण कभी तो गरदन मोड़ कर पीछेकी ओर देखता था, कभी दूर तक लम्बी छलाङ्ग भरता था, कभी धीरे-धीरे चलता था, कभी दौड़ता था, और कभी निर्भय हो घासके अङ्कर खाने लगता था ॥ २००॥ कभी अपने आपको इतने पास ले आता था कि हाथसे पकड़ लिया जावे और कभी उछल कर बहुत दूर चला जाता था। उसकी ऐसी चेष्टा देख रामचन्द्रजी कहने लगे कि यह कोई मायामय मृग है मुझे व्यर्थ ही खींच रहा है और कठिनाईसे पकड़नेके योग्य है। ऐसा कहने हुए रामचन्द्रजी उसके पीछे-पीछे चले गये परन्तु कुछ समय बाद ही वह उछल कर आकाशांगण में चला गया सो ठीक ही है क्योंकि जिनका चित्त स्त्रीके वश है उन्हें करने योग्य कार्यका विचार कहाँ होता है ? ।। २०१-२०२ ॥ जिस प्रकार घड़ेके भीतर रखा हुआ साँप दुखी होता है उसी प्रकार रामचन्द्रजी आकाशकी ओर देखते तथा अपनी हीनताका वर्णन करते हुए वहीं पर आश्चर्यसे चकित होकर ठहर गये ।। २०३॥
अथानन्तर-रावण रामचन्द्रजीका रूप रखकर सीताके पास आया और कहने लगा कि मैंने उस हरिणको पकड़कर आगे भेज दिया है । २०४ ।। हे प्रिये ! अब सन्ध्याकाल हो चला है । देखो, यह पश्चिम दिशा सूर्य-बिम्बको धारण करती हुई ऐसी सुशोभित हो रही है मानो सिन्दूरका तिलक ही लगाये हो । २०५ ॥ इसलिए हे सुन्दरि ! अब शीघ्र ही सुन्दर पालकीपर सवार होओ, सुखपूर्वक रात्रि बितानेके लिए यह नगरीमें वापिस जानेका समय है ॥२०६॥ रावणने ऐसा कहा तथा पुष्पक विमानको मायासे पालकीके आकार बना दिया। सीता भ्रान्तिवश उसपर आरूढ़ हो गई।॥ २०७।। सीताको व्यामोह उत्पन्न करते हुए रावण अपने आपको ऐसा दिखाया मानो घोड़ेपर सवार पृथिवीपर रामचन्द्रजी ही चल रहे हों ।। २०८।। इस प्रकार मायाचारमें निपुण पापी रावण उपाय द्वारा पतिव्रताओंमें अग्रगामिनी-श्रेष्ठ सीताको सर्पिणीके समान अपनी मृत्युके लिए ले गया॥२०॥क्रम क्रमसे लड़ा पहुँचकर उसने सीताको एक वनके बीच उतारा और शीघ्र ही माया
१ श्रयेतो क०, ग, घ० । २ पुरोगमन ल । ३ क्रमात् प० । क्रमः ल०, ख०, म०।
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