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महापुराणे उत्तरपुराणम्
मानभङ्गः सपत्नीषु दृष्टोत्कर्षेण केनचित् । स्वभाववक्त्रवाक्कायमनोभिः कुटिलात्मता ॥ १६९ ॥ गर्भसूतिसमुत्पन्नरोगादिपरिपीडनम् । शोचनं स्त्रीसमुत्पत्तावपत्यमरणा' सुखम् ॥ १७० ॥ रहस्यकार्यबाह्यत्वं सर्वकार्येष्वतन्त्रता । विधवात्वे महादुःखपात्रत्वं दुष्टचेष्टया ॥ १७१ ॥ दानशीलोपवासादिपरलोकहितक्रिया । विधानेष्वप्रधानत्वं सन्तानार्थानवापनम् ॥ १७२ ॥ कुलनाशोऽगतिर्मुक्त' रित्याद्यन्यश्च दूषितम् । साधारणमिदं सर्वत्रीणां कस्मात्तवाभवत् ॥ १७३ ॥ तस्मिन्सुखाभिलाषित्वं वयस्यस्मिन् गतत्रये । न चिन्तयसि ते भाविहितं मतिविपर्ययात् ॥ १७४ ॥ स्त्रीत्वे सतीत्वमेवैकं श्लाघ्यं तत्पतिमात्मनः । विरूपं व्याधितं निःस्वं दुःस्वभावमवर्तकम् ॥ १७५ ॥ त्यक्त्वान्यं चेद्दशं वास्तां चक्रिणं वाभिलाषिणम् । पश्यन्तः कुष्ठि चाण्डालसदृशं नाभिलाषुकाः ॥ १७६ ॥ तमप्याक्रम्य भोगेच्छं सद्यो दृष्टिविषोपमाः । नयन्ति भस्मसाद्भावं यद्वलात् कुलयोषितः ॥ १७७ ॥ इत्याह तद्वचः श्रुत्वा मन्दरोऽद्विश्व चाल्यते । शक्यं चालयितु ं नास्याश्चित्तमित्याकुलाकुला ॥ १७८ ॥ गृहकार्यं भवद्वाक्यश्रुतेविंस्मृत्य दुःखिता । यामि देव्यहमित्येतच्चरणाववनम्य सा ॥ १७९ ॥ गत्वानिष्ठितकार्यत्वाद्विषण्णा रावणं प्रति । अशक्यारम्भवृत्तीनां क्लेशादन्यत्कुतः फलम् ॥ १८० ॥ दृष्ट्वा तं स्वोचितं देव सीता शीलवती न सा । वज्रयष्टिरिवान्येन भेत्तुं केनापि शक्यते ॥ १८१ ॥ इति स्वगतवृत्तान्तमुक्त्वा तेऽभिमतं मया । नोक्त' शीलवती कोपवह्निभीत्येति साम्रवीत् ॥ १८२ ॥ दूसरेके चरणों की सेवा करनी पड़ती है ।। १६७ - १६८ ॥ और सपत्नियोंमें यदि किसीकी उत्कृष्टता हुई तो सदा मानभङ्गका दुःख उठाना पड़ता है। स्वभाव, मुख, वचन, काय, और मनकी अपेक्षा उनमें सदा कुटिलता बनी रहती है ॥ १६६ ॥ गर्भधारण तथा प्रसूतिके समय उत्पन्न होनेवाले अनेक रोगादिकी पीड़ा भोगनी पड़ती है। यदि किसीके कन्याकी उत्पत्ति होती है तो शोक छा जाता है, किसीकी सन्तान मर जाती है तो उसका दुःख भोगना पड़ता है ।। १७० ।। विचार करने योग्य खास कार्योंमें उन्हें बाहर रखा जाता है, समस्त कार्योंमें उन्हें परतन्त्र रहना पड़ता है, दुर्भाग्यवश यदि कोई विधवा हो गई तो उसे महान् दुःखोंका पात्र होना पड़ता है । दानशील उपवास आदि परलोकका हित करनेवाले कार्यों के करनेमें उसकी कोई प्रधानता नहीं रहती । यदि स्त्रीके सन्तान नहीं हुई तो कुलका नाश हो जाता है और मुक्ति तो उसे होती ही नहीं है । इनके सिवाय और भी अनेक दोष हैं जो कि सब स्त्रियों में साधारण रूपले पाये जाते हैं फिर क्यों तुझे इस निन्द्य स्त्रीपर्यायमें सुख की इच्छा हो रही है । हे निर्लज्जे ! तू इस अवस्था में भी अपने भावी हितका विचार नहीं कर रही है इससे जान पड़ता है कि तेरी बुद्धि विपरीत हो गई है ।। १७१-१७४ ।। स्त्री पर्यायमें एक सतीपना ही प्रशंसनीय है और वह सतीपना यही है कि अपने पतिको चाहे वह कुरूप हो, बीमार हो, दरिद्र हो, दुष्ट स्वभाववाला हो, अथवा बुरा बर्ताव करनेवाला हो, छोड़कर ऐसे ही किसी दूसरेकी बात जाने दो, चक्रवर्ती भी यदि इच्छा करता हो तो उसे भी कोढ़ी अथवा चाण्डालके समान नहीं चाहना । यदि कोई ऐसा पुरुष जबर्दस्ती आक्रमण कर भोगकी इच्छा रखता है तो उसे कुलवती त्रियाँ दृष्टिविष सर्प के समान अपने सतीत्वके बलसे शीघ्र ही भस्म कर देती हैं ।। १७५-१७७ ॥ इस प्रकार सीताके वचन सुनकर शूर्पणखा मनमें विचार करने लगी कि कदाचित् मन्दरगिरि-सुमेरु पर्वत तो हिलाया जा सकता है पर इसका चित्त नहीं हिलाया जा सकता। ऐसा विचार कर वह बहुत ही व्याकुल हुई ॥ १७८ ॥ और कहने लगी कि हे देवि ! आपके वचन सुनने से मैं घरका कार्य भूल कर दुःखी हुई, अब जाती हूं ऐसा कहकर तथा उसके चरणोंको नमस्कार कर वह चली गई ॥१७६॥ कार्य पूरा न होने से वह रावणके पास खेद खिन्न होकर पहुंची सो ठीक ही है क्योंकि जिन कार्योंका प्रारम्भ करना अशक्य है उन कार्योंका क्लेशके सिवाय और क्या फल हो सकता है ? ॥ १८० ॥ शूर्पणखाने पहले तो यथायोग्य विधिसे उस रावणके दर्शन किये और तदनन्तर निवेदन किया कि हे देव ! सीता शीलवती है, वह वत्रयष्टिके समान किसी अन्य स्त्रीके द्वारा भेदन नहीं की जा सकती ।। १८१ ॥ इस तरह अपना वृत्तान्त कह कर उसने यह कहा कि मैंने शीलवतीकी क्रोधामिके भयसे १ मरणेऽसुखं ल० । २ भोनेच्छं ग० । भोगोत्थं ल० ।
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